उदयपुर। रसोई केवल एक जगह नहीं होती, यह एक स्मृति होती है — माँ के हाथों की महक, दादी की रसोई से उठती खुशबू, और उन बर्तनों की खनक जो कभी हमारे बचपन का संगीत हुआ करते थे। इसी भावना को सहेजते हुए, झूलेलाल भवन शक्ति नगर में “सिंधी रसोई” नामक एक विशेष आयोजन हुआ, जिसने सिंधी संस्कृति के स्वाद, संवेदना और समर्पण को एक ही थाल में परोस दिया।
यह आयोजन पूज्य जैकब आबाद पंचायत द्वारा किया गया, जिसमें करीब 180 सिंधी मातृशक्ति ने भाग लेकर इस अनुभव को जीवंत बना दिया। आयोजन की शुरुआत भगवान झूलेलाल की ज्योत प्रज्वलित कर की गई — जैसे किसी पुराने घर में फिर से जीवन लौटा हो।
जब व्यंजन बनें स्मृतियाँ
सिंधी शेफ शोभा किशनानी ने जब सतपुड़ा और नानकताई बनाने की विधि बताई, तो वहाँ मौजूद हर स्त्री की आंखों में एक चमक थी — मानो उन्होंने माँ की रसोई में झाँक लिया हो। वहीं सिमरन पाहुजा ने जब सोया चाप रोल बनाना सिखाया, तो परंपरा और नवाचार का एक मधुर संगम मंच पर साकार हुआ।
लोगों ने जब प्रोजेक्टर पर लाइव देखा, तब कोई अपने बचपन में खो गया, तो कोई अपनी दादी के आँचल के पीछे छिपी रसोई को याद करता रहा। वहाँ खाना नहीं बन रहा था — यादें बन रही थीं, रिश्ते पक रहे थे, और संस्कृति फिर से सांस ले रही थी।
संस्कृति की लौ फिर जली…
कार्यक्रम के केंद्र में केवल व्यंजन नहीं थे, बल्कि वह भावना थी जिससे एक पूरी सभ्यता पकी हुई थी। जैकब आबाद पंचायत के अध्यक्ष एवं पूर्व राज्य मंत्री हरीश राजानी ने कहा,
“हमारी माताएँ और बहनें जब ये व्यंजन बनाती हैं, तो वे केवल खाना नहीं परोसतीं — वे हमारी संस्कृति को हमारी थालियों में रखती हैं। यही कारण है कि हमने दस दिवसीय कार्यशाला की शुरुआत की है।”
आयुक्त प्रज्ञा केवल रामानी की भावभीनी बातों ने कार्यक्रम को और अधिक अर्थपूर्ण बना दिया:
“यह सिर्फ़ स्वाद की बात नहीं, यह आत्मा की बात है। सिंधी रसोई उस विरासत का नाम है जो पीढ़ियों से चूल्हों पर चढ़ती आई है, और अब नई पीढ़ी तक पहुंचाने का वक्त है।”
दादा प्रताप राय चुघ की आँखें जब यह कहते हुए नम हो गईं कि
“जब कढ़ी-चावल या दाल पकवान बनते हैं, तो घर में सिर्फ़ खाना नहीं, एक पूरा युग लौट आता है,” तब हर दिल उस क्षण से जुड़ गया, जब वो अपने घर के पुराने रसोईघर में माँ के बगल में खड़ा होता था।
मातृशक्ति ने रचा सांस्कृतिक उत्सव
महिलाओं ने भी इस आयोजन को दिल से अपनाया। एक प्रतिभागी ने कहा,
“यह केवल रेसिपी नहीं थी — यह दादी के हाथों की खुशबू थी, वो चूल्हे की गर्मी थी जो सर्दियों में हम सबको एक साथ लाती थी।”
जिनका साथ रहा…
इस आयोजन में समाज के अशोक पाहुजा, राजेश चुघ, भारत खत्री, कैलाश नेभनानी, कमलेश राजानी, कैलाश डेमला, गोपाल मेहता, और राहुल निचलानी जैसे सामाजिक सेवकों का विशेष सहयोग रहा। संचालन भावना मोरियानी और महिमा चुघ ने पूरे स्नेह और आत्मीयता से किया — मानो वे कार्यक्रम नहीं, एक पारिवारिक उत्सव का नेतृत्व कर रही हों।
समापन नहीं, एक नई शुरुआत
“सिंधी रसोई” एक कार्यक्रम नहीं था — वह एक यात्रा थी अपने भीतर, अपनी जड़ों की ओर। वह याद दिलाने आया था कि स्वाद सिर्फ़ ज़ुबान पर नहीं होता, वह आत्मा में बसता है। और जब वह स्वाद संस्कृति से जुड़ा हो, तब वह अमर हो जाता है।
इस आयोजन ने यह साबित कर दिया कि हमारी थाली में सिर्फ़ रोटियाँ नहीं होतीं — वहाँ हमारी पहचान, हमारी माँ की ममता, और हमारी संस्कृति के अक्षर दर्ज होते हैं।
“सिंधी रसोई” — स्वाद, स्मृति और संस्कृति का त्रिवेणी संगम।