
उदयपुर। किसी गाँव की धूल भरी पगडंडियों से लेकर बड़े शहरों के आलीशान स्कूलों तक—तालीम का सपना हर बच्चे की आँखों में चमकता है। लेकिन अफ़सोस, हमारे मुल्क के कई कोनों में ये सपना अब भी धुंधलाया हुआ है। ऐसे हालात में हिन्दुस्तान ज़िंक की ‘शिक्षा संबल’ पहल उम्मीद की ऐसी शमा है जो अंधेरों में भी रोशनी बिखेर रही है।
उदयपुर, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा जैसे राजस्थान के दूरदराज़ इलाक़ों के 1500 से ज़्यादा बच्चे इस समर कैम्प में शामिल हुए—जहाँ सिर्फ किताबों का ज्ञान नहीं, बल्कि हुनर, अदब, खेल और संस्कृति की रोशनियाँ भी उनके दामन में डाली गईं।

इस एक माह के तालीमी सफ़र ने बच्चों के दिल में जो जोश और जिज्ञासा जगाई, उसका कोई मोल नहीं। जहाँ पहले ये बच्चे अंग्रेज़ी और साइंस जैसे मज़बूत मज़मूनों से डरते थे, वहीं अब उनके लबों पर नयी बातें हैं, आँखों में नए ख़्वाब हैं। कोई इंजीनियर बनना चाहता है, कोई डॉक्टर, तो कोई अपने गाँव का मास्टर।
भीलवाड़ा की 10वीं की तालिबा आशा कहती है—”पहले मुझे साइंस से ख़ौफ़ था, अब नहीं। शिक्षा संबल ने मेरी हिम्मत बढ़ाई है। मैं एक दिन इंजीनियर बनूँगी और गाँव के दूसरे बच्चों को भी आगे बढ़ने का रास्ता दिखाऊँगी।”
क्या ये किसी इंक़लाब से कम है?
तालीम के मायने : किताबों से कहीं आगे…
इस कैम्प ने बच्चों को किताबों के सिलेबस से बाहर भी कई ज़रूरी बातें सिखाईं—जैसे टीमवर्क, सब्र, दूसरों की बात सुनना, नए दोस्तों से मिलना। गार्गी कॉलेज, आईसर मोहाली, दिल्ली यूनिवर्सिटी के वालंटियर्स ने बच्चों के साथ मिलकर उन्हें बताया कि तालीम सिर्फ इम्तिहान पास करने का ज़रिया नहीं है, बल्कि एक तर्ज़-ए-ज़िंदगी है।

यही वजह है कि जो बच्चे यहाँ एक महीना बिताकर लौटे, वो सिर्फ पढ़ाई के नहीं, बल्कि बेहतर इंसान बनने के रास्ते पर भी चल पड़े हैं।
कैम्प में जो माहौल बना, उसने एक बार फिर साबित कर दिया कि गांवों के ये छोटे-छोटे फूल भी खिल सकते हैं—बस ज़रूरत है उन्हें सही धूप-पानी देने की।
सामाजिक असर: जहाँ आँकड़े भी मुस्कुराने लगे…
क्या किसी तालीमी कोशिश की कामयाबी सिर्फ अख़बारों की सुर्ख़ियों में होती है? नहीं। उसकी असल पहचान उन आँकड़ों से होती है जो ज़मीन पर बदलाव लाते हैं। 2007 में जहाँ केवल 45% बच्चे 10वीं पास कर पाते थे, वहीं अब ये संख्या 93.6% तक पहुँच गई है।
ये सिर्फ नंबर नहीं… ये उन माँओं के सपने हैं जो चाहती थीं कि उनका बच्चा भी अफ़सर बने, इंजीनियर बने; ये उन बापों की ख़ुशी है जिनके बेटे अब खेत की मेंड़ छोड़ क्लासरूम में बैठते हैं।
हिन्दुस्तान ज़िंक की सोहबत में बदली तसवीर…
कंपनी सिर्फ तालीम ही नहीं दे रही, बल्कि उस सोच को भी बदल रही है जो गाँव के बच्चों को शहर के बच्चों से कमतर समझती है। CSR हेड अनुपम निधि ने बिल्कुल दुरुस्त फ़रमाया कि “ये कैम्प बच्चों में सिर्फ तालीमी कमी पूरी करने का जरिया नहीं है, बल्कि उनमें ख़ुद पर यक़ीन और बेहतर शख़्सियत बनाने की बुनियाद भी है।”
जहाँ तक सरहदें हैं, वहाँ तक इस सोच को ले जाना अब हमारी भी ज़िम्मेदारी बनती है।
रोज़गार, सेहत, हुनर… एक मुकम्मल कोशिश
हिन्दुस्तान ज़िंक की ये पहल सिर्फ स्कूल तक महदूद नहीं है। ऊँची उड़ान, जीवन तरंग जैसे प्रोग्राम से ये कंपनी स्पेशल बच्चों, ग़रीब तबक़े और महिलाओं तक भी पहुँची है। पानी की बचत हो या किसानों का हुनर बढ़ाना—हर पहलू में हिन्दुस्तान ज़िंक ने अपनी सैम्मेदारी निभाई है।
राजस्थान सरकार के साथ मिलकर अगले पाँच साल में 36 करोड़ रुपये की तालीमी स्कीम इस बात का सुबूत है कि ये पहल थोथी CSR दिखावे की नहीं है—बल्कि सच्ची समाजसेवा की दास्तान है।
एक नई सुबह की दस्तक…
आज जब इन बच्चों के लबों पर नये सपनों की दुआएँ हैं, उनके दिलों में नयी उम्मीद की रौशनी है, तो पूरा राजस्थान भी उनके साथ मुस्कुरा रहा है। गाँवों की गलियों से उठती इस तालीमी क्रांति की सदा दूर तक जाएगी।
और शायद यही वो दिन है, जब कोई बच्चा जो कभी स्कूल छोड़ने की सोच रहा था—अब कहता है, “मुझे और पढ़ना है… दुनिया बदलनी है।”
अंत में…
हिन्दुस्तान ज़िंक का शिक्षा संबल प्रोग्राम साबित करता है कि तालीम महज़ इमारतों में नहीं होती… वो इंसानों के भीतर होती है। जहाँ सोच बदले, वहीं असल स्कूल बसता है।
और जब ऐसी कोशिशें हों तो मुमकिन है कि एक दिन राजस्थान की हर गली से कल के डॉक्टर, इंजीनियर, अफ़सर, साइंटिस्ट निकलें… और साथ में वो इंसान भी जो बेहतर समाज बनाए।
“ये सिर्फ तालीम नहीं… ये इंक़लाब है।”
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