
भारत संसार में उन देशों में शामिल है जहाँ सिनेमा महज़ मनोरंजन नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की सांस्कृतिक धड़कन है। हर साल 1500 से 2000 फ़िल्में बनने वाले इस देश में लगभग 30 हज़ार स्क्रीनों पर डेढ़ करोड़ दर्शक रोज़ाना कोई न कोई फ़िल्म देखते हैं। इस विशाल दर्शक वर्ग के दिलों पर दशकों से एक नाम बराबर राज कर रहा है—शाहरुख़ ख़ान।
मुंबई में समुद्र किनारे स्थित ‘मन्नत’ आज किसी ऐतिहासिक स्थल की तरह दुनिया भर से आने वाले फ़ैन्स का आकर्षण बन चुका है। कभी-कभी जब शाहरुख़ टैरेस पर आकर हाथ हिलाते हैं, तो यह दृश्य किसी महज़ फ़िल्मी स्टार का नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक प्रतीक का लगता है।
पेशावर की गलियों से दिल्ली तक—एक विरासत की शुरुआत
मशहूर फ़िल्म पत्रकार अनुपमा चोपड़ा अपनी किताब ‘किंग ऑफ़ बॉलीवुड’ में लिखती हैं कि पेशावर के ढाकी नाल बंदी और डूमा गली जैसे ऐतिहासिक मोहल्लों से कुछ ही दूरी पर शाहवाली क़तल की एक पतली गली में 1928 में शाहरुख़ के पिता मीर ताज मोहम्मद का जन्म हुआ था।
स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय मीर ताज मोहम्मद 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जेल भी भेजे गए थे।
1946 में पढ़ाई के लिए दिल्ली आए मीर ताज मोहम्मद, 1947 के विभाजन के बाद पेशावर नहीं लौट सके। राजनीतिक गतिविधियों और ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ाँ से निकटता के कारण उन पर वहाँ जाने पर प्रतिबंध था।
एक दुखद बचपन—15 वर्ष की आयु में पिता का निधन
दिल्ली में बस चुके मीर ताज मोहम्मद ने हैदराबाद की फ़ातिमा से विवाह किया और 2 नवंबर 1965 को शाहरुख़ का जन्म हुआ। राजेंद्र नगर में बीता उनका बचपन कठिनाइयों और संघर्षों से भरा था।
मोहर बसु लिखती हैं कि किशोरावस्था में शाहरुख़ अमिताभ बच्चन के बड़े प्रशंसक थे। अपनी दोस्त अमृता सिंह के साथ वह सबसे आगे की सस्ती सीट लेकर फ़िल्में देखते थे।
लेकिन 15 वर्ष की उम्र में उनके पिता का कैंसर से निधन हो गया—यह घटना उनकी ज़िंदगी का निर्णायक मोड़ साबित हुई।
सेंट कोलंबस से थिएटर तक—शरारती लड़का, उभरता कलाकार
दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल में शाहरुख़ शरारती मिज़ाज के लिए मशहूर थे। कभी लंबे बालों के कारण नाई की दुकान भेज दिए जाते, तो कभी क्लास में ‘मिर्गी का नाटक’ करके पूरा दिन दोस्तों के साथ घूमते।
इसी दौरान वह थिएटर की ओर आकर्षित हुए। बैरी जॉन के थिएटर ग्रुप TAG ने उन्हें अभिनय की पहली औपचारिक शिक्षा दी। एक छोटे से नाटक से लेकर शॉर्ट फ़िल्म ‘इन विच ऐनी गिव्स इट दोज़ वन’ तक—शाहरुख़ की प्रतिभा ने सबका ध्यान खींचा।
टेलीविज़न से राष्ट्रीय पहचान—‘फ़ौजी’ का फ़ेनोमेना
टेलीविज़न सीरियल ‘फ़ौजी’ ने शाहरुख़ को राष्ट्रीय पहचान दिलाई।
ऑडिशन में कठोर टेस्ट, दौड़, बॉक्सिंग—शाहरुख़ ने हर चुनौती को उत्साह से पार किया। शुरू में उन्हें छोटे रोल के लिए चुना गया था, मगर उनकी ऊर्जा ने निर्माताओं को प्रभावित किया और वे मुख्य भूमिका में आ गए।
इस सीरियल ने एक सितारे के उदय को पहली बार स्क्रीन पर परिभाषित किया।
मुंबई आगमन और फिल्मों की शुरुआत—रूप रंग की परवाह नहीं, सिर्फ़ हुनर
जब शाहरुख़ मुंबई आए, उनके पास न तो जिम-टोन्ड बॉडी थी, न ही ‘हीरो’ जैसा चेहरा।
राजीव मेहरा बताते हैं कि वह अपने बाल कैमलिन गोंद से सेट करते थे।
जी.पी. सिप्पी के अनुसार, उनका लुक पारंपरिक बॉलीवुड हीरो जैसा नहीं था, लेकिन उनके पास एक चीज़ थी—कच्ची, सच्ची प्रतिभा।
गौरी छिब्बर से प्रेम और विवाह—एक वास्तविक प्रेम कहानी

18 वर्षीय शाहरुख़ का दिल 14 साल की गौरी छिब्बर पर आया।
गौरी के माता-पिता ने विवाह का विरोध किया, लेकिन शाहरुख़ ने अपने व्यवहार और आत्मीयता से उनका दिल जीत लिया।
हिंदू रीति-रिवाज़ और कोर्ट मैरिज के साथ यह प्रेम कहानी पूरी हुई—जिसके पीछे संघर्ष भी था, समर्पण भी।
‘दीवाना’ से ‘DDLJ’ तक—स्टारडम की उड़ान

1992 में ‘दीवाना’ से फ़िल्मी सफ़र शुरू हुआ, लेकिन 1995 में आई ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ ने शाहरुख़ को सुपरस्टार बना दिया।
मराठा मंदिर में इस फ़िल्म का लगातार चलना, संगीत की रिकॉर्ड बिक्री और पीढ़ियों पर प्रभाव—सब मिलकर इस फ़िल्म को लोक-संस्कृति का हिस्सा बना चुके हैं।
महिलाओं के बीच लोकप्रियता—संवेदनशीलता उनकी पहचान
शाहरुख़ की छवि रोमांटिक हीरो की रही, लेकिन उनकी संवेदनशीलता ने उन्हें महिलाओं के बीच खास लोकप्रियता दिलाई।
वह पत्नी के गाउन का कोना पकड़ लेने में संकोच नहीं करते थे, कार का दरवाज़ा खोलना उनका स्वभाव था।
माधुरी दीक्षित ने कहा था—
“वह इंडस्ट्री के सबसे अच्छे इंसानों में से एक हैं।”
फ्लॉप फ़िल्में, आलोचनाएं और फिर वापसी—The Teflon King
कुछ फ़िल्में असफल रहीं—रा.वन, ज़ीरो, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी—लेकिन हर बार उन्होंने एक बड़ी हिट देकर वापसी की।
यह बात पुष्ट करती है कि शाहरुख़ असफलता से टूटने वालों में नहीं, बल्कि उसे हराने वालों में से हैं।
2005 में पद्मश्री, मैडम तुसाद में मोम की मूर्ति और ‘माइ नेम इज़ ख़ान’ से मिली वैश्विक पहचान ने उनकी जगह और मजबूत की।
विवादों में भी चमक नहीं हुई कम
वानखेड़े स्टेडियम विवाद, राजस्थान में धूम्रपान की सुनवाई, 2021 में बेटे आर्यन का मामला, ‘पठान’ गाने का विवाद—शाहरुख़ विवादों में रहे, परंतु उनकी लोकप्रियता कभी कम नहीं हुई।
‘चक दे इंडिया’—अभिनय की पराकाष्ठा
2007 की ‘चक दे इंडिया’ ने शाहरुख़ को एक अभिनेता के रूप में नई पहचान दी।
कोच कबीर ख़ान के किरदार में उनका अभिनय भारतीय सिनेमा के श्रेष्ठ प्रदर्शनों में गिना जाता है।
टी20 विश्व कप की जीत के दौरान यह फ़िल्म एक राष्ट्रीय गीत की तरह बजती रही।
भारत का ग्लोबल चेहरा—बॉलीवुड के सबसे बड़े ब्रांड एंबेसडर
चाहे रोमांस हो, देशभक्ति हो, या जीवन के संघर्षों की कहानी—शाहरुख़ ख़ान ने हर पात्र को अपनी एक विशिष्ट छाप दी है।
उन्होंने दुनिया भर में हिन्दी फ़िल्मों की पहुंच को बढ़ाया और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की सांस्कृतिक छवि को मजबूती दी।
आज शाहरुख़ सिर्फ़ एक अभिनेता नहीं, बल्कि भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े ब्रांड एंबेसडर माने जाते हैं—एक ऐसा नाम जो पीढ़ियों को जोड़ता है और भारत की सिने जागरूकता को वैश्विक पहचान देता है।
स्रोत : बीबीसी हिंदी
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