
नई दिल्ली। बिहार के विधानसभा चुनाव परिणामों ने न सिर्फ राजनीतिक विश्लेषकों को हैरान किया है, बल्कि इसने पूरे राजनीतिक परिदृश्य को एक बार फिर नए सिरे से परिभाषित कर दिया है।
यह नतीजे अप्रत्याशित तो थे ही, लेकिन जिस अनुपात में एनडीए को बढ़त मिली है, वह भारतीय राजनीति में एक बार फिर केंद्र की सत्ता के प्रभाव और राष्ट्रीय नेतृत्व की पकड़ को उजागर करते हैं।
जिन रिपोर्टर्स और ग्राउंड वर्कर्स ने महीनों बिहार की राजनीतिक नब्ज को टटोला, उनकी राय थी कि लड़ाई कड़ी होगी लेकिन बाज़ी एनडीए के पक्ष में जा सकती है। हालांकि, 200 सीटों के पार पहुँचना… यह किसी भी गंभीर विश्लेषक की धारणा में नहीं था। यह सिर्फ जीत नहीं, एक राजनीतिक भूकंप है—और यह भूकंप कहीं न कहीं मोदी-शाह की जोड़ी के रणनीतिक दांवों की सफलता का प्रतीक है।
इन नतीजों ने भाजपा नेतृत्व को एक तरह से नई लाइफ लाइन प्रदान की है, जबकि विपक्ष, खासकर राष्ट्रीय स्तर का विपक्ष, वेंटीलेटर मोड में दिखाई दे रहा है।
राजद को सबसे अधिक वोट—लेकिन सीटें सिर्फ 25 : एक चुनावी विसंगति
चुनावी गणित कहता है कि जिस पार्टी को सबसे ज्यादा वोट मिले हों, उसका प्रदर्शन सीटों में भी झलकना चाहिए। मगर बिहार में तस्वीर पूरी तरह उलटी रही।
राजद ने सर्वाधिक वोट प्रतिशत हासिल किया, लेकिन सीटें महज 25 तक ही सीमित रह गईं।
उधर बीजेपी को वोट प्रतिशत कम मिला, फिर भी 89 सीटें।

यह अंतर सिर्फ चुनावी संख्या का नहीं, बल्कि चुनावी प्रबंधन, बूथ माइक्रो-मैनेजमेंट और गठबंधन राजनीति के प्रभाव का परिणाम है। तेजस्वी यादव इसे सहज स्वीकारने को तैयार नहीं। उनकी चिंता, गुस्सा और आशंकाएँ परिणाम आने के तुरंत बाद ही सामने आ गईं—वोट चोरी, EVM संदिग्धता, SIRs और चुनाव आयोग पर उंगली उठाकर वे नतीजों को अपनी तारीफ या खामी नहीं, बल्कि “षड्यंत्र” की तरह प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहे हैं।
“एनडीए 20 साल से सामाजिक और राजनीतिक रूप से मजबूत था”
राजनीतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव ने भी माना कि विपक्ष की हार करारी है—और यह सिर्फ हार नहीं, बल्कि “रणनीतिक विफलता” है।
उनके अनुसार एनडीए की जीत कई कारकों का समन्वय है:
2005 से 2025 तक एनडीए ने बिहार में अपनी सामाजिक और राजनीतिक जमीन मजबूत की।
नीतीश कुमार की व्यक्तिगत स्वीकार्यता अभी भी कायम है, खासकर ग्रामीण और महिला मतदाताओं के बीच।
चुनाव से ठीक पहले महिलाओं के खातों में 10–10 हजार रुपये डालना एक निर्णायक फैक्टर साबित हुआ।
बीजेपी का संगठनात्मक तंत्र विपक्ष की तुलना में कहीं अधिक सुगठित और सक्रिय रहा।
फिर भी योगेंद्र यादव चौंके बिना नहीं रह सके—“200 से अधिक सीटें… यह सामान्य चुनावी हवा का नतीजा नहीं, यह एक अचंभित करने वाली लहर है।”
“ये नतीजे लोकतंत्र को खतरे में डालते हैं”—वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग की टिप्पणी
वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग ने परिणामों पर बेहद तीखी और चिंता भरी प्रतिक्रिया दी है।
उनके शब्दों में: इन नतीजों ने विपक्ष को पूरी तरह से वेंटीलेटर पर पहुँचा दिया है।
नरेंद्र मोदी को यह जीत सीधा राजनीतिक लाइफ लाइन देती है, खासकर उस समय जब केंद्र सरकार राष्ट्रीय स्तर पर कई मोर्चों पर चुनौतियों से जूझ रही थी।
गर्ग का यह भी मानना है कि इतनी व्यापक जीत सत्ता का केंद्रीकरण तेज करेगी,
और यह भारतीय लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है।
वे चेतावनी देते हैं कि ऐसी जीतें उन पार्टियों के भीतर भी अंदरुनी लोकतंत्र को कुचल देती हैं, जो सत्ता के अत्यधिक केंद्रीकरण की चपेट में आती हैं।
नतीजों का बड़ा संदेश: विपक्ष का अस्तित्व संकट गहरा
इन चुनावी नतीजों का सबसे बड़ा संकेत यह है कि राष्ट्रीय राजनीति में विपक्ष की रणनीतियां बिखरी हुई हैं।
कोई स्पष्ट नेतृत्व नहीं,
कोई साझा एजेंडा नहीं,
कोई मजबूत नैरेटिव नहीं।
बिहार ने एक बार फिर साबित कर दिया कि विपक्ष को सिर्फ बीजेपी का विरोध करके चुनाव नहीं जीता जा सकता—उन्हें नैरेटिव, आंकड़े, जमीनी संगठन, और माइक्रो-मैनेजमेंट सभी स्तरों पर तैयार होना पड़ेगा।
बिहार का चुनाव भविष्य का रास्ता तय करेगा
बिहार चुनाव परिणाम सिर्फ राज्य की सत्ता का फैसला नहीं हैं— यह राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय करने वाले नतीजे भी हैं। मोदी-शाह की जोड़ी को मिली लाइफ लाइन आने वाले राष्ट्रीय चुनावों में उनकी भूमिका को और प्रभावशाली बनाएगी।
विपक्ष को यह नतीजा चेतावनी की तरह है—या तो वे स्वयं को पुनर्गठित करें, या फिर राष्ट्रीय राजनीति से धीरे-धीरे अप्रासंगिक होते जाएं।
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