
मुंबई।
कला जब निजी अनुभवों की आग में तपकर सामने आती है, तो वह सिर्फ़ मनोरंजन नहीं रह जाती — वह एक दस्तावेज़ बन जाती है। महेश भट्ट की फ़िल्मों और ज़िंदगी को इसी कसौटी पर समझा जा सकता है। पाँच दशकों से भी अधिक लंबे अपने सृजनात्मक सफ़र में महेश भट्ट ने हिंदी सिनेमा को वह स्वर दिया, जो अक्सर मुख्यधारा की चमक-दमक में दब जाया करता है — सच का स्वर, दर्द का, बेचैनी का, और आत्मा की तलाश का।
एक सांझा विरासत से उपजी चेतना
20 सितंबर 1948 को मुंबई में जन्मे महेश भट्ट दो अलग-अलग संस्कृतियों के संगम से पैदा हुए थे। उनके पिता, नानाभाई भट्ट, गुजराती ब्राह्मण समुदाय से थे, जबकि उनकी माँ, शिरीन मोहम्मद अली, एक शिया मुस्लिम थीं। इस मिश्रित सांस्कृतिक विरासत ने महेश के भीतर बचपन से ही एक गहरी संवेदनशीलता और एक व्यापक दृष्टि का बीज बो दिया था।
लेकिन उनका बचपन केवल विविधता से नहीं, बल्कि जटिलताओं से भी भरा था। माता-पिता के “अजीब रिश्ते” — एक अधूरी, बंधी-बंधाई व्यवस्था — ने महेश के भीतर असुरक्षा और अकेलेपन का गहरा बोध जन्म दिया। यही अंतर्द्वंद्व, आगे चलकर उनकी रचनात्मकता की ज़मीन बना।
संघर्ष की पहली सीढ़ियां
महेश भट्ट ने किशोरावस्था से ही जीवन के व्यावहारिक पहलुओं को पकड़ना शुरू कर दिया था। डॉन बॉस्को हाई स्कूल, माटुंगा में पढ़ाई करते हुए उन्होंने छोटे-मोटे नौकरियों में हाथ आज़माना शुरू किया — विज्ञापन फिल्मों का निर्माण, ब्रांड प्रचार के काम, और फिर फ़िल्म इंडस्ट्री में धीरे-धीरे पाँव रखना।
उनकी यात्रा एक फ़िल्म निर्देशक राज खोसला के सहायक के रूप में शुरू हुई, जहां उन्होंने निर्देशन की बारीकियों को नज़दीक से देखा और सीखा।
किस्सागोई से सिनेमाई आत्मा तक
महेश भट्ट का सिनेमा कभी बनावटी नहीं रहा। उनकी शुरुआती फ़िल्म ‘मंज़िलें और भी हैं’ (1974) भले ही ज़्यादा पहचान नहीं बना सकी, लेकिन इसने एक रचनात्मक यात्रा का आग़ाज़ कर दिया।
‘अर्थ’ (1982) उनके करियर का टर्निंग पॉइंट बना — एक फ़िल्म जो उनकी निजी पीड़ा और रिश्तों की सच्चाई का प्रतिरूप थी। इस आत्मकथात्मक शैली ने उन्हें हिंदी सिनेमा में एक अनूठी जगह दिलाई।
इसके बाद ‘सारांश’ (1984) आया — एक वृद्ध दंपति के अकेलेपन और सत्ता के खिलाफ़ संघर्ष की मार्मिक कहानी, जिसने साबित कर दिया कि महेश भट्ट केवल कहानियाँ नहीं सुनाते, वे जीवन के सबसे कड़े सवालों को उठाते हैं।
‘आशिकी’ (1990) और ‘दिल है कि मानता नहीं’ (1991) जैसी रोमांटिक हिट फ़िल्मों ने उन्हें व्यावसायिक सफलता भी दिलाई। लेकिन महेश भट्ट के भीतर का सच्चा कलाकार कभी बाज़ार की मांगों में पूरी तरह नहीं डूबा।
‘ज़ख़्म’ (1998) में उन्होंने सांप्रदायिक तनाव, माँ के साथ जटिल रिश्तों और पहचान के संघर्ष को परदे पर उतारा — और एक बार फिर अपने दर्शकों को भीतर तक हिला दिया।
ज़िंदगी से निकली हर कहानी
महेश भट्ट के सिनेमा में जो प्रामाणिकता है, वह सीधे उनके जीवन के अनुभवों से आई है।
उनका रिश्ता अभिनेत्री परवीन बॉबी के साथ, एक ऐसी दास्तान बन गया, जो ‘अर्थ’ में झलकता है।
किरन (लॉरेन ब्राइट) से विवाह, दो बच्चों — पूजा भट्ट और राहुल भट्ट — का जन्म, फिर सोनी राज़दान से नया जीवनसाथ्य और दो और बेटियाँ — शाहीन और आलिया भट्ट — महेश भट्ट की ज़िंदगी के अलग-अलग अध्याय हैं।
हर संबंध, हर जख़्म, हर मोड़ ने उन्हें नया आकार दिया।
उनके सिनेमा में रिश्तों की नाजुकता, आत्मा की बेचैनी और इंसानी कमज़ोरियों का ब्योरा इतनी सच्चाई से दर्ज हुआ कि कई बार पर्दा और जीवन के बीच की दीवार ही टूट जाती थी।
दार्शनिक खोज और आत्मा की लड़ाई
महेश भट्ट के जीवन पर भारतीय विचारक यू जी कृष्णमूर्ति का गहरा प्रभाव पड़ा।
यू जी के दर्शन — आत्मज्ञान, सामाजिक ढांचों पर सवाल और व्यक्तिगत आज़ादी की खोज — महेश की सोच और लेखन दोनों में गहरे पैठ गए।
उनकी किताबें और सार्वजनिक वक्तव्य इस बात का प्रमाण हैं कि महेश भट्ट केवल सिनेमा के नहीं, बल्कि अस्तित्व के सवालों के भी यात्री हैं।
उनका मानना रहा कि रचनात्मकता का सबसे बड़ा स्रोत — सच्ची बेचैनी है, वह बेचैनी जो हमें भीतर से कुरेदती है और नया रूप देती है।
विशेष फ़िल्म्स और नई प्रतिभाओं को मंच
अपने भाई मुकेश भट्ट के साथ मिलकर महेश भट्ट ने ‘विशेष फ़िल्म्स’ की नींव रखी — एक ऐसा बैनर जिसने भारतीय सिनेमा को कई नए चेहरे दिए। इमरान हाशमी, कंगना रनौत, विद्या बालन जैसे सितारे इसी बैनर से उभरे।
महेश भट्ट का मानना रहा कि रचनात्मकता को ताज़ा रखने के लिए नए विचारों और नई ऊर्जा का स्वागत करना ज़रूरी है।
इसलिए वे न सिर्फ़ फ़िल्में बनाते रहे, बल्कि उन विचारों की जमीन भी तैयार करते रहे, जिनमें नयापन था, बगावत थी, और सच्चाई थी।
एक जीवन जो आज भी सवाल करता है
महेश भट्ट की कहानी सिर्फ एक फ़िल्मकार की कहानी नहीं है।
यह उस इंसान की यात्रा है, जिसने ज़िंदगी के हर घाव को अपना सौंदर्य बना लिया।
जिसने टूटन को अपनी ताक़त बनाया और जिसे चमकदार सफलता से कहीं ज़्यादा अपनी आत्मा की सच्चाई प्रिय रही।
आज भी जब उनकी फ़िल्में देखी जाती हैं — चाहे वह ‘अर्थ’ हो, ‘ज़ख़्म’ हो या ‘सारांश’ — तो महसूस होता है कि सच पर वक़्त की कोई धूल नहीं जमती।
महेश भट्ट ने हमें सिखाया कि जीवन से बड़ा कोई लेखक नहीं, और दर्द से बड़ा कोई शिक्षक नहीं।
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