
उदयपुर। रंगों का त्योहार होली सिर्फ गुलाल उड़ाने और मिठाइयों से भरी नहीं होती, बल्कि यह उन हंसी-ठिठोलियों का भी पर्व है, जो रिश्तों को और मजबूत बना देती हैं। लेकिन जब होली की मस्ती और पत्रकारिता की धार मिल जाए, तो एक ऐसी परंपरा जन्म लेती है, जो सालों-साल लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाने का काम करती है।
उदयपुर के वरिष्ठ पत्रकार भूपेंद्र चौबीसा इस परंपरा को संजोए हुए हैं। जहां धीरे-धीरे होली पर व्यंग्यात्मक लेखन की परंपरा अखबारों से गायब होती गई, वहीं चौबीसा जी अपने ‘बुरा न मानो होली है—खुल्लमखुल्ला’ कॉलम से इसे जीवंत रखे हुए हैं।
हर साल की तरह इस बार भी उनका यह विशेषांक आया और आते ही शहर के पत्रकारों की हलचल बढ़ा दी। पढ़ने वाले पढ़ते हैं, मुस्कुराते हैं, पर पत्रकार बिरादरी की आदत के मुताबिक, प्रतिक्रिया कोई नहीं देता! मगर दिल ही दिल में सब जानते हैं कि होली का असली आनंद इसी खुल्लमखुल्ला मस्ती में है।
होली के रंगों में ‘खुल्लमखुल्लाजंलि’ का अनोखा नवाचार
इस बार चौबीसा जी ने एक भावनात्मक नवाचार किया—लोककला मर्मज्ञ डॉ. महेंद्र भानावत और वरिष्ठ पत्रकार शैलेश व्यास को श्रद्धांजलि देते हुए इसे ‘खुल्लमखुल्लाजंलि’ नाम दिया। यह सिर्फ एक शब्द नहीं था, बल्कि उन यादों को रंगों से भरने की कोशिश थी, जो हमेशा जीवंत रहेंगी।
जब शब्द रंगों से भी ज्यादा असर छोड़ जाते हैं
हर साल यह विशेषांक शहर के पत्रकारों पर हल्के-फुल्के व्यंग्य की फुहार छोड़ता है। मात्र दो लाइनों में उनकी शख्सियत का निचोड़ निकाल देना, वह भी बिना किसी द्वेष या कटाक्ष के—यही चौबीसा जी की लेखनी की खूबसूरती है।
चेतक सर्कल स्थित पार्श्व कल्ला कार्यालय में हुए विमोचन समारोह में शहर के वरिष्ठ पत्रकारों, प्रेस क्लब के अध्यक्षों और कई गणमान्य लोगों ने इस परंपरा को न केवल सराहा बल्कि इसे होली की मुस्कान कहकर सम्मान दिया।
रंगों में लिपटी पत्रकारिता की अनमोल परंपरा
जहां एक ओर पत्रकारिता की दुनिया में संजीदगी बढ़ती जा रही है, वहीं चौबीसा जी जैसे पत्रकार इस रंगभरी परंपरा को संजोकर रखते हैं, ताकि हर साल होली पर अख़बारों से सिर्फ खबरें ही नहीं, बल्कि मुस्कान भी छलकती रहे।
तो होली के इस महापर्व पर, बुरा न मानो… क्योंकि खुल्लमखुल्ला होली है!
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