उदयपुर। इमाम हुसैन की शहादत सिर्फ़ इतिहास नहीं, एक अमली उसूल है — सब्र, अदल, अख़लाक़ और इंसाफ़ का बे मिसाल नमूना। अगर हम इमाम हुसैन अ. की सीरत को अपने किरदार का हिस्सा बना लें, तो कोई ताक़त हमें झुका नहीं सकती। जब इंसान अपने अख़लाक को संवारता है, जब वह अनुशासन की राह पर चलता है, तो फिर दुश्मन भी सर झुकाने पर मजबूर हो जाता है।
हर साल जब मोहर्रम का महीना आता है, ताज़ियादारी और जुलूसों का सिलसिला शुरू होता है। ये सिर्फ़ रस्में नहीं, बल्कि एक अज़ीम शहादत की याद है, एक सबक़ है कि किस तरह हक़ की राह में सर कटा देना चाहिए मगर सर झुकाना नहीं।
लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि कुछ जज़्बाती अफ़राद इस मातमी और पुर-अहतराम माहौल को अपनी ग़लत हरकतों से मलिन कर देते हैं। हुड़दंग, धक्का-मुक्की, और अनुशासनहीनता — ये सब ताजियादारी की रूह के खिलाफ़ है। ऐसा करना ना सिर्फ़ इमाम की तालीमात की तौहीन है, बल्कि समाजी अमन को भी नुक़सान पहुंचाता है।
अक़्सर देखा जाता है कि जब प्रशासन ताज़ियादारी के दौरान क़ानून-ओ-ज़ाब्ता बनाए रखने के लिए कुछ सख़्ती करता है, तो वही जज़्बाती लोग अपने ही रहनुमाओं को कटघरे में खड़ा कर देते हैं। वो भूल जाते हैं कि पुलिस और प्रशासन को इंटेलिजेंस रिपोर्ट्स के ज़रिए जो मालूमात मिलती हैं, उन्हीं के बुनियाद पर अमन क़ायम रखने की तदबीरें की जाती हैं।
बेशक, हो सकता है कि किसी मौके पर प्रशासन की सख़्ती ज़रूरत से ज़्यादा हो — मगर उसका तजज़िया तहज़ीब से, तमीज़ से किया जाना चाहिए। ग़ैर ज़िम्मेदाराना बयानबाज़ी और सोशल मीडिया पर बे-सिर-पैर की तहरीरें, ना सिर्फ़ माहौल को बिगाड़ती हैं बल्कि पूरे तबक़े को बदनाम करने का सबब बन जाती हैं।
ताज़िये तो सदीयों से निकलते आए हैं। राहें बदलीं, रास्ते तय हुए, कुछ लोग मुतमइन हुए तो कुछ ने नाराज़गी का इज़हार किया। ये सब तब्दीली के हिस्से हैं, मगर इसमें शऊर और सब्र की ज़रूरत है। बात का जवाब बात से, और एहतिजाज का जवाब तमीज़ से देना ही हमारी असल पहचान होनी चाहिए।
इससे पहले कि हम किसी पर इल्ज़ाम लगाएं, बेहतर होगा कि हम अपने दामन में झांकें — क्या हमने ताज़ियादारी को उस एहतराम से निभाया जैसा इमाम हुसैन की शान के लायक़ है?
अगर हम सब्र करें, अपने अख़लाक को सुधारें, तहज़ीब को ओढ़ लें और जज़्बात के बजाय समझदारी से काम लें, तो यक़ीन जानिए — फिर हुसैनी ब्राह्मण भी आपके साथ खड़े नज़र आएंगे।
हुसैनी ब्राह्मण: एक तारीख़ी मिसाल
आपको जानकर हैरत होगी कि हिंदुस्तान में एक तबक़ा है जिसे हुसैनी ब्राह्मण कहा जाता है। तारीख़ गवाह है कि जब कर्बला की सरज़मीन पर हक़ और बातिल के दरमियान जंग हो रही थी, तो हिंदुस्तान से ब्राह्मणों का एक दल इमाम हुसैन की मदद के लिए रवाना हुआ। हां, जब तक वो पहुंचे, इमाम शहीद हो चुके थे — मगर उसके बावजूद उन्होंने यज़ीद की फौज के खिलाफ़ हुसैनी खेमे के साथ जंग लड़ी।
इतिहासकारों के मुताबिक़, पंजाब के दत्त ब्राह्मण ही वो हुसैनी ब्राह्मण थे जिन्होंने इस जंग में अपनी जानें क़ुर्बान कर दीं। ये वाक़िआ सिर्फ़ इत्तेफ़ाक़ नहीं, ये गवाही है उस इत्तिहाद की जो मज़हब की सरहदों से ऊपर उठकर इन्सानियत के नाम पर वजूद में आता है।
आज अगर हम वाक़ई इमाम हुसैन अ. की तालीमात पर चलें, तो समाज में इत्तिहाद, सब्र, मोहब्बत और तहज़ीब खुद-ब-खुद पनपेगी। फिर न कोई शक़ होगा, न कोई शिकवा। फिर सियासत भी हमारी अज़मत का सौदा न कर पाएगी।
नोट : हुसैनी ब्राह्मण के बारे में इतिहासकार अशोक कुमार पांडे के हवाले से लिखा गया है।
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