ब्रेन ईटिंग अमीबा : केरल में फैलता ख़तरा और इलाज की कठिन लड़ाई

केरल इन दिनों एक ऐसे दुश्मन से जूझ रहा है जो सामान्य आंखों से दिखाई नहीं देता। इसके पास न बंदूक है ना बम, बल्कि इंसान के शरीर में घुसकर सीधे उसके दिमाग़ को नष्ट कर देता है। इसे आम बोलचाल में ब्रेन ईटिंग अमीबा कहते हैं और विज्ञान की भाषा में इसका नाम है नीग्लेरिया फॉवलेरी। यह वही अमीबा है जो प्राइमरी अमीबिक मेनिंगोइन्सेफ़्लाइटिस यानी पीएएम नामक घातक बीमारी का कारण बनता है। सितंबर 2025 के मध्य तक केरल में इस बीमारी के 60 से अधिक मामले दर्ज किए जा चुके हैं और कम से कम 18 लोगों की जान जा चुकी है। स्थिति गंभीर इसलिए है क्योंकि यह संक्रमण दुनिया में सबसे घातक माना जाता है और मृत्यु दर 97 फ़ीसदी से भी अधिक है।

ब्रेन ईटिंग अमीबा दरअसल एक सूक्ष्म जीव है जो प्रायः ताज़े और गर्म पानी में पाया जाता है। तालाब, झीलें, नदी के किनारे का ठहरा हुआ पानी या सही ढंग से क्लोरीनेट न किए गए स्वीमिंग पूल इसके पनपने के लिए आदर्श जगह होते हैं। जब कोई इंसान ऐसे पानी में तैरता है या डुबकी लगाता है तो पानी के साथ यह अमीबा नाक के रास्ते शरीर में प्रवेश कर जाता है। वहां से यह क्रिब्रिफ़ॉर्म प्लेट नामक संरचना को पार करते हुए सीधे मस्तिष्क तक पहुंचता है और धीरे-धीरे दिमाग़ की कोशिकाओं को नष्ट करना शुरू कर देता है। यही वजह है कि इसे ब्रेन ईटिंग अमीबा कहा जाता है।

इस बीमारी के शुरुआती लक्षण बहुत आम लग सकते हैं। अचानक तेज़ सिरदर्द होना, बुखार चढ़ना, गले में खराश या अकड़न, उल्टी और थकान जैसी स्थितियां शुरू में सर्दी-जुकाम या वायरल संक्रमण जैसी लगती हैं। लेकिन दो-तीन दिनों के भीतर हालत तेज़ी से बिगड़ने लगती है। मरीज को दौरे पड़ने लगते हैं, मानसिक संतुलन बिगड़ने लगता है, व्यक्ति अचेत हो सकता है और अंततः कोमा में चला जाता है। कई बार मस्तिष्क पर दबाव इतना अधिक बढ़ जाता है कि मरीज की मौत कुछ ही दिनों में हो जाती है। यही कारण है कि डॉक्टर इस बीमारी को समय पर पहचानने की चुनौती से जूझते हैं।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस बीमारी पर हुए शोध बेहद डराने वाले हैं। अमेरिका के सेंटर्स फॉर डिज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन यानी सीडीसी के आंकड़े बताते हैं कि 1971 से 2023 तक ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, मैक्सिको और पाकिस्तान जैसे देशों में इसके बहुत कम मामले पाए गए लेकिन कुल संक्रमितों में से केवल आठ ही लोग बच पाए। यह भी तब संभव हुआ जब बीमारी की पहचान शुरुआती चौबीस से अड़तालीस घंटे के भीतर हो गई और एंटीमाइक्रोबियल दवाओं का आक्रामक प्रयोग शुरू हुआ।

भारत में खासतौर पर केरल में इसके मामले बार-बार सामने आने की वजहें साफ दिखाई देती हैं। राज्य में बड़ी संख्या में तालाब, झीलें और नदियां हैं जिनमें लोग स्नान करते हैं। गर्म और आर्द्र जलवायु इस अमीबा के पनपने के लिए अनुकूल है। ग्रामीण इलाकों में आज भी तालाब और कुएं नहाने के लिए इस्तेमाल होते हैं। धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं के तहत मंदिर तालाबों में स्नान करने की प्रथा भी बनी हुई है। दूसरी ओर शहरी इलाकों में कई स्वीमिंग पूल ऐसे हैं जिनमें क्लोरीनेशन का पर्याप्त ध्यान नहीं रखा जाता। यही कारण है कि यह अमीबा लोगों के शरीर तक पहुंचने का मौका पा जाता है।

केरल विधानसभा में यह मुद्दा तीखी बहस का कारण बना हुआ है। विपक्षी गठबंधन यूडीएफ़ का आरोप है कि सरकार इस बीमारी की रोकथाम और कारणों को लेकर नाकाम रही है। उनका कहना है कि सरकार के पास ठोस वैज्ञानिक स्पष्टीकरण और रणनीति नहीं है। दूसरी ओर स्वास्थ्य मंत्री वीना जॉर्ज कहते हैं कि राज्य सरकार इस मामले को गंभीरता से ले रही है और सार्वजनिक स्वास्थ्य को सर्वोच्च प्राथमिकता दे रही है। लेकिन विपक्ष यह भी याद दिलाता है कि 2018 में प्रकाशित शोध रिपोर्ट को लेकर भी ठोस कदम नहीं उठाए गए थे। इससे यह मामला राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप में उलझ गया है, जबकि असल जरूरत है कि सत्ता और विपक्ष मिलकर समाधान खोजें।

अब सवाल उठता है कि इसका इलाज क्या है। डॉक्टरों का मानना है कि यदि शुरुआती लक्षणों के साथ ही इस बीमारी की पहचान हो जाए तो मरीज को बचाने की थोड़ी संभावना रहती है। इलाज में आम तौर पर एंटीमाइक्रोबियल दवाओं का कॉम्बिनेशन दिया जाता है जिसमें एम्फोटेरिसिन बी, रिफाम्पिन और एज़िथ्रोमाइसिन शामिल हैं। हाल के वर्षों में मिल्टेफ़ोसिन नामक दवा को भी आशा की किरण माना गया है। हालांकि यह दवा पहले भारत में उपलब्ध नहीं थी और इसे जर्मनी से आयात करना पड़ता था, लेकिन अब सरकार ने इसकी उपलब्धता सुनिश्चित की है। मिल्टेफ़ोसिन का इस्तेमाल पहले कुछ दुर्लभ बीमारियों में किया जाता था और इसकी लागत भी अब उतनी महंगी नहीं रही।

संक्रमण की पुष्टि के लिए मरीज के सेरेब्रोस्पाइनल फ्लूइड यानी सीएसएफ़ की जांच की जाती है और इसमें पीसीआर टेस्ट सबसे अहम है। लेकिन समस्या यह है कि ज्यादातर अस्पतालों में यह सुविधा तत्काल उपलब्ध नहीं होती और समय गंवाने से मरीज की स्थिति गंभीर हो जाती है। यही वजह है कि स्वास्थ्य विशेषज्ञ लगातार इस बात पर जोर देते हैं कि जिला स्तर पर ही ऐसी जांच सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं और डॉक्टरों को इस बीमारी के लक्षण पहचानने का प्रशिक्षण दिया जाए।

इलाज के बावजूद यह सच है कि अब तक बहुत ही सीमित मरीज ही बच पाए हैं। इसलिए डॉक्टर और स्वास्थ्य अधिकारी एक स्वर में कहते हैं कि इस बीमारी का सबसे बड़ा और कारगर इलाज परहेज़ ही है। दूषित पानी वाले तालाबों, झीलों और असुरक्षित स्वीमिंग पूल में नहाने से बचना चाहिए। पानी में क्लोरीन मिलाना बेहद ज़रूरी है। तैराकी करते समय यह ध्यान रखा जाए कि नाक और मुंह में पानी न जाए। बच्चों और बुज़ुर्गों को ऐसे जलाशयों में न तैरने दिया जाए।

इस बीमारी का सामाजिक और सांस्कृतिक पहलू भी है। ग्रामीण समाज में लोग प्राकृतिक जल स्रोतों को न केवल स्नान बल्कि धार्मिक अनुष्ठानों के लिए भी इस्तेमाल करते हैं। मंदिर तालाबों या कुओं में स्नान की परंपरा आज भी जीवित है। लेकिन जब इन जल स्रोतों का नियमित रखरखाव और शुद्धिकरण नहीं होता तो ये संक्रमण का अड्डा बन जाते हैं। ऐसे में जागरूकता अभियान की भूमिका बेहद अहम है।

वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो दुनिया भर में इस बीमारी पर शोध जारी है। मिल्टेफ़ोसिन जैसी नई दवाओं के अलावा वैज्ञानिक यह कोशिश कर रहे हैं कि नए एंटी-अमीबिक ड्रग्स विकसित किए जाएं। कुछ शोधकर्ता तो वैक्सीन की संभावना तलाश रहे हैं। भारत जैसे देशों में जहां सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचा चुनौतियों से जूझ रहा है, वहां अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों जैसे डब्ल्यूएचओ और सीडीसी के सहयोग से शोध कार्य को तेज़ करना आवश्यक है।

जन स्वास्थ्य की दृष्टि से इस बीमारी से निपटने के लिए कई मोर्चों पर काम करना होगा। सबसे पहले व्यापक सार्वजनिक स्वास्थ्य अभियान चलाना ज़रूरी है। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में लोगों को यह समझाना होगा कि तालाब या दूषित पानी में नहाना कितना ख़तरनाक हो सकता है। स्कूलों, कॉलेजों और पंचायत स्तर पर जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाएं। दूसरी ओर स्वीमिंग पूल के संचालन को लेकर कड़े नियम बनाए जाएं और नियमित जाँच व क्लोरीनेशन सुनिश्चित किया जाए। अस्पतालों में डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों को विशेष प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे शुरुआती लक्षणों को पहचान सकें और तुरंत पीसीआर टेस्ट करवा सकें।

सबसे अहम बात यह है कि इस मामले को राजनीतिक विवाद से दूर रखकर केवल स्वास्थ्य के मुद्दे के रूप में देखा जाए। जब सत्ता और विपक्ष एक-दूसरे पर आरोप मढ़ते हैं तो असल मुद्दा पीछे छूट जाता है और जनता को उसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। यह समय है कि सभी मिलकर इस खतरे से लड़ने की ठोस रणनीति बनाएं।

निष्कर्षतः, ब्रेन ईटिंग अमीबा भले ही एक दुर्लभ बीमारी का कारण हो, लेकिन इसकी घातकता इसे बेहद ख़तरनाक बना देती है। केरल में बार-बार इसके मामले सामने आना इस बात का संकेत है कि हमें पानी के स्रोतों के प्रबंधन, स्वास्थ्य ढांचे की तैयारी और जनता की जागरूकता पर गंभीरता से काम करना होगा। विज्ञान बताता है कि शुरुआती पहचान और त्वरित इलाज से कुछ जानें बच सकती हैं, लेकिन असली सुरक्षा सावधानी और बचाव में ही है। अगर हम इस पर ध्यान नहीं देंगे तो यह अदृश्य दुश्मन आगे भी और जिंदगियां निगलता रहेगा।

स्रोत : बीबीसी

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