जयपुर। राजस्थान कांग्रेस इन दिनों संगठन में बड़े बदलाव की ओर बढ़ रही है। पार्टी ने ‘संगठन सृजन अभियान’ के तहत प्रदेश के पचास जिलों में नए जिलाध्यक्ष नियुक्त करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। यह केवल साधारण फेरबदल नहीं है, बल्कि कांग्रेस की भविष्य की रणनीति का अहम हिस्सा माना जा रहा है। पार्टी हाईकमान ने इसके लिए अन्य राज्यों से तीस वरिष्ठ नेताओं को पर्यवेक्षक के रूप में राजस्थान भेजा है। ये नेता जिलों का दौरा कर स्थानीय कार्यकर्ताओं और नेताओं से बातचीत कर रहे हैं और तीन नामों का पैनल तैयार कर दिल्ली भेजेंगे। अंतिम निर्णय राहुल गांधी ही लेंगे।
यह प्रक्रिया इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि राजस्थान में नए जिलों में पहली बार जिलाध्यक्ष नियुक्त होंगे। वहीं पुराने जिलों में भी नए सिरे से नियुक्तियां होंगी। कांग्रेस चाहती है कि 2028 के विधानसभा चुनाव और 2029 के लोकसभा चुनाव से पहले संगठन को नए उत्साह और जोश से लैस किया जाए। लंबे समय से जिलाध्यक्ष पद पर जमे हुए कई नेताओं को बदला जाएगा और नए कार्यकर्ताओं को अवसर मिलेगा। इससे उन शिकायतों को भी दूर करने की कोशिश होगी, जो कार्यकर्ताओं ने पार्टी नेतृत्व तक पहुंचाई थीं कि पुराने जिलाध्यक्ष निष्क्रिय हो गए हैं और नए चेहरों को आगे बढ़ने का मौका नहीं मिल रहा।
राजस्थान कांग्रेस में बदलाव की यह प्रक्रिया अचानक नहीं आई है। पिछले कुछ वर्षों में संगठनात्मक स्तर पर कई चुनौतियां सामने आईं। गहलोत और पायलट गुटों की खींचतान ने कार्यकर्ताओं का मनोबल गिराया। जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं की उपेक्षा और टिकट वितरण में असंतोष ने पार्टी की छवि को भी नुकसान पहुंचाया। इसके अलावा भाजपा की आक्रामक रणनीति और बूथ स्तर तक की तैयारी ने कांग्रेस पर दबाव बनाया। यही वजह रही कि कांग्रेस को लगा कि यदि संगठन को पुनर्गठित नहीं किया गया तो भविष्य में नुकसान उठाना पड़ सकता है।
राहुल गांधी इस प्रक्रिया में केंद्रीय भूमिका निभा रहे हैं। वे लगातार इस बात पर जोर देते आए हैं कि कांग्रेस को युवाओं और महिलाओं को नेतृत्व में लाना चाहिए। उनकी यात्राओं ने उन्हें यह अहसास कराया कि आम कार्यकर्ता और जनता बदलाव चाहती है। राहुल गांधी चाहते हैं कि जिलाध्यक्ष जैसे अहम पदों पर ऐसे लोगों को मौका मिले जो सक्रिय हों, जनता से जुड़े हों और नए विचारों को आगे बढ़ाने का साहस रखते हों। यही कारण है कि इस बार नियुक्तियों में युवाओं और महिलाओं को प्राथमिकता दिए जाने की संभावना है।
हालांकि, यह आसान काम नहीं होगा। कांग्रेस को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। सबसे बड़ी चुनौती गुटबाज़ी की है। अगर किसी जिले में एक गुट का नेता जिलाध्यक्ष बन गया और दूसरे गुट को अनदेखा कर दिया गया, तो असंतोष बढ़ सकता है। वरिष्ठ नेताओं की नाराज़गी भी सामने आ सकती है क्योंकि हर नेता अपने समर्थकों को जिम्मेदारी दिलाना चाहेगा। इसके साथ ही राजस्थान की जातीय और सामाजिक संरचना भी बड़ी बाधा है। प्रत्येक जिले में जातिगत समीकरण अहम भूमिका निभाते हैं। यदि इन्हें ध्यान में रखे बिना नियुक्तियां की गईं तो स्थानीय स्तर पर विवाद खड़े हो सकते हैं।
इन चुनौतियों के बावजूद कांग्रेस को उम्मीद है कि इस बदलाव से उसे लाभ मिलेगा। नए चेहरों के आने से संगठन में ऊर्जा का संचार होगा। महिलाएं और युवा आगे आएंगे तो पार्टी का जनाधार भी विस्तृत होगा। जिलाध्यक्ष यदि कार्यकर्ताओं को सक्रिय कर पाए तो कांग्रेस बूथ स्तर तक अपनी पकड़ मजबूत कर सकेगी। गुटबाज़ी पर भी काबू पाया जा सकता है यदि हाईकमान नियुक्तियों में संतुलन साध ले।
भाजपा इस पूरी प्रक्रिया को कांग्रेस की कमजोरी के रूप में पेश करने की कोशिश करेगी। उसका कहना होगा कि कांग्रेस इतनी बार बदलाव कर रही है क्योंकि उसका संगठन कमजोर है। लेकिन कांग्रेस इसे अपनी सक्रियता और सुधार की कोशिश बताएगी। यह देखना दिलचस्प होगा कि जनता किस तर्क को मानती है।
जिलों से आ रहे शुरुआती फीडबैक से लगता है कि कार्यकर्ताओं में इस बदलाव को लेकर उत्साह है। कई जगहों पर कहा जा रहा है कि पुराने जिलाध्यक्ष काम नहीं कर रहे थे और नए कार्यकर्ताओं को मौका नहीं दे रहे थे। अगर पार्टी सचमुच जमीनी नेताओं को सामने लाती है तो कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ेगा और संगठन अधिक मजबूत होगा।
यह साफ है कि राजस्थान कांग्रेस का यह कदम केवल संगठनात्मक फेरबदल नहीं है। यह पार्टी की भविष्य की दिशा तय करने वाला प्रयोग है। राहुल गांधी का मकसद है कि कांग्रेस जमीनी स्तर पर जीवंत बने और भाजपा की चुनावी मशीनरी का मुकाबला कर सके। अब देखना होगा कि यह प्रयोग कितना सफल होता है। यदि संतुलन साधकर सही चेहरों का चयन हुआ तो यह कांग्रेस को नया जीवन दे सकता है। लेकिन यदि गुटबाज़ी और जातिगत समीकरणों को संभालने में चूक हुई तो यह कदम पार्टी को और कमजोर कर सकता है।
राजस्थान की राजनीति हमेशा से कांग्रेस के लिए अहम रही है। 2008 में कांग्रेस सत्ता में आई, 2013 में हार का सामना करना पड़ा, 2018 में फिर वापसी की, और 2023 में भाजपा ने सत्ता हथिया ली। इन उतार-चढ़ावों के बीच एक बात हमेशा सामने रही कि संगठन जितना मजबूत होगा, चुनावी नतीजे उतने ही अनुकूल आएंगे। शायद यही सीख कांग्रेस ने अपने हालिया अनुभवों से ली है और अब जिलाध्यक्षों की नियुक्तियों के जरिए एक बार फिर मजबूत नींव डालने की कोशिश कर रही है।
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