राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : सौ साल की यात्रा और भारत की राजनीति-संस्कृति पर असर

साल 1925, नागपुर। विजयादशमी का दिन। डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार कुछ युवाओं के साथ एक नए संगठन की स्थापना करते हैं। यह संगठन शुरू में बहुत छोटा था, पर उसका लक्ष्य बेहद व्यापक था – भारत में हिंदू समाज को संगठित करना और उसकी सांस्कृतिक चेतना को नई दिशा देना। इस संगठन का नाम रखा गया – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस)।

आज, लगभग एक सदी बाद, आरएसएस केवल एक संगठन नहीं बल्कि भारतीय राजनीति, समाज और संस्कृति में एक गहरी शक्ति के रूप में खड़ा है। इसकी शाखाएँ देशभर के गाँवों-शहरों में फैली हैं और इसके वैचारिक प्रभाव ने केंद्र की सत्ता तक पहुँच बना ली है। लेकिन इसके साथ ही संघ विवादों, आलोचनाओं और सवालों के घेरे में भी रहा है।

इस फीचर में हम संघ की कहानी, उसकी विचारधारा, संरचना, उपलब्धियों और आलोचनाओं को समझने की कोशिश करेंगे।


आरएसएस की नींव: एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

डॉ. हेडगेवार स्वयं कांग्रेस पार्टी से जुड़े हुए थे और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के राष्ट्रवादी विचारों से प्रभावित थे। लेकिन उनके मन में यह असंतोष था कि भारत में स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान हिंदू समाज संगठित नहीं है और उसकी सामूहिक चेतना कमजोर है।

उन्होंने 1925 में एक छोटे-से समूह के साथ आरएसएस की शुरुआत की। न तो इसे औपचारिक सदस्यता की ज़रूरत थी, न ही इसमें राजनीति का कोई सीधा दायित्व। इसकी मूल अवधारणा यह थी कि “संगठित समाज ही मज़बूत राष्ट्र की नींव है।”

शुरुआत में शाखाएँ केवल कुछ इलाकों तक सीमित थीं, लेकिन धीरे-धीरे यह संगठन एक अनुशासित ढाँचे में ढलता गया।


विचारधारा: हिंदुत्व की परिभाषा

संघ की विचारधारा का आधार हिंदुत्व है, जिसे वी. डी. सावरकर ने परिभाषित किया था। उनके अनुसार, जो लोग भारत को अपनी पितृभूमि (पूर्वजों की भूमि) और पुण्यभूमि (धार्मिक भूमि) मानते हैं, वही “हिंदू” हैं।

आरएसएस के लिए हिंदुत्व केवल धर्म नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक पहचान है। यही कारण है कि संघ खुद को धार्मिक संगठन नहीं बल्कि सांस्कृतिक संगठन कहता है।

संघ का मानना है कि भारत की आत्मा हिंदू संस्कृति में निहित है और देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए इसी सांस्कृतिक चेतना को मज़बूत करना ज़रूरी है।


शाखा मॉडल और संगठनात्मक ढाँचा

आरएसएस का सबसे प्रमुख और चर्चित पहलू उसकी शाखाएँ हैं। देशभर में प्रतिदिन हज़ारों शाखाएँ लगती हैं, जिनमें स्वयंसेवक एक तय समय पर इकट्ठा होकर व्यायाम, खेल, देशभक्ति गीत और अनुशासनात्मक गतिविधियाँ करते हैं।

शाखाओं का उद्देश्य केवल शारीरिक प्रशिक्षण देना नहीं है, बल्कि एक साझा सामूहिकता की भावना पैदा करना है।

संघ की संरचना में “सरसंघचालक” सर्वोच्च पद होता है। यह आजीवन पद होता है और इसी व्यक्ति को संगठन की वैचारिक दिशा तय करने वाला माना जाता है। दिलचस्प बात यह है कि आरएसएस कभी भी अपने कार्यक्रमों का प्रचार नहीं करता और न ही औपचारिक सदस्यता अभियान चलाता है। इसके बावजूद संघ का फैलाव स्वतःस्फूर्त रूप से होता गया है।


महिलाएँ और आरएसएस: एक आलोचनात्मक पक्ष

आरएसएस के भीतर महिलाओं की भागीदारी बहुत सीमित रही है। महिलाओं के लिए अलग संगठन – राष्ट्रीय सेविका समिति – बनाया गया, लेकिन यह हमेशा संघ के मुख्य ढाँचे से अलग रहा।

आलोचक कहते हैं कि संघ के भीतर पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण हावी है और महिलाओं को नेतृत्व की भूमिकाओं में जगह नहीं दी जाती। हालाँकि, संघ समर्थकों का कहना है कि महिलाओं का योगदान अलग मोर्चे पर महत्वपूर्ण रहा है।


स्वतंत्रता आंदोलन और आरएसएस की भूमिका

एक बड़ा सवाल यह रहा है कि जब पूरा देश आज़ादी की लड़ाई में सक्रिय था, तब आरएसएस कहाँ था?

संघ ने औपचारिक रूप से स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से भी उसने दूरी बनाई। आलोचकों का आरोप है कि संघ ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ संघर्ष में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई।

संघ की दलील रही है कि उनका प्राथमिक उद्देश्य समाज का संगठन करना था और स्वतंत्रता का संघर्ष राजनीतिक दलों का क्षेत्र था।


गोडसे विवाद और प्रतिबंध

1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर सबसे गंभीर आरोप लगे। हत्यारे नाथूराम गोडसे कभी संघ से जुड़े हुए थे। इस कारण संघ पर प्रतिबंध लगाया गया।

हालाँकि अदालत में यह साबित नहीं हुआ कि संघ का इस हत्या से सीधा संबंध था। बाद में सरदार पटेल ने भी स्वीकार किया कि गोडसे संघ से अलग हो चुका था। इसके बावजूद, गांधी हत्या संघ की छवि पर एक स्थायी धब्बे की तरह दर्ज हो गई।

गांधी की हत्या के बाद ही संघ ने पहली बार संविधान और लोकतांत्रिक ढाँचे को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने का ऐलान किया।


फंडिंग और संगठनात्मक विस्तार

संघ की शाखाओं में कोई सदस्यता शुल्क नहीं होता। स्वयंसेवक अपने स्तर पर दान करते हैं, जिसे गुरुदक्षिणा कहा जाता है।

इन्हीं चंदों और दान से संगठन चलता है। समय के साथ संघ ने अनेक सहयोगी संगठनों का निर्माण किया – जैसे विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, वनवासी कल्याण आश्रम, और सेवा भारती। इन संगठनों के जरिए संघ ने समाज के विभिन्न वर्गों में अपनी पकड़ बनाई।


बीजेपी और संघ: राजनीतिक समीकरण

संघ खुद को राजनीतिक संगठन नहीं मानता, लेकिन इसका राजनीतिक चेहरा भारतीय जनता पार्टी है।

1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ बनाया था, जो आगे चलकर 1980 में बीजेपी बनी। आज बीजेपी भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयंसेवक पृष्ठभूमि से आते हैं।

बीजेपी और संघ के रिश्ते को अक्सर “छाया और शरीर” जैसा कहा जाता है – एक राजनीति करता है, दूसरा वैचारिक आधार देता है।


आलोचना और समर्थन

संघ के आलोचक कहते हैं कि यह संगठन अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों और ईसाइयों, के प्रति संदेह की दृष्टि रखता है। इसे “हिंदू राष्ट्र” की अवधारणा पर आधारित बताया जाता है, जो भारत के बहुलतावादी समाज के लिए चुनौती है।

दूसरी ओर, समर्थकों का मानना है कि संघ ने भारतीय समाज में आत्मविश्वास जगाया, सामाजिक सेवा की परंपरा को मज़बूत किया और राजनीति में अनुशासन व राष्ट्रवाद की नई धारा दी।


आज का संघ: सौ साल बाद

आज आरएसएस केवल एक संगठन नहीं बल्कि एक इकोसिस्टम है। इसकी शाखाएँ गाँव-गाँव तक फैली हैं, इसके सहयोगी संगठन शिक्षा, मजदूर, किसान, आदिवासी, महिलाएँ, मीडिया और संस्कृति – हर क्षेत्र में सक्रिय हैं।

संघ का प्रभाव भारतीय राजनीति के उच्चतम स्तर तक पहुँचा है। लेकिन इसके सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या यह संगठन 21वीं सदी के भारत की बहुलतावादी और लोकतांत्रिक आकांक्षाओं से सामंजस्य बिठा पाएगा या नहीं।


निष्कर्ष

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कहानी केवल एक संगठन की नहीं बल्कि आधुनिक भारत की राजनीति और समाज की भी कहानी है।

जहाँ एक ओर यह संगठन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा को मज़बूत करता है, वहीं दूसरी ओर यह धर्मनिरपेक्ष भारत की परिकल्पना के लिए लगातार चुनौती भी पेश करता है।

सौ साल की यात्रा के बाद संघ भारतीय राजनीति का एक निर्णायक खिलाड़ी है – चाहे कोई इसे सराहे या आलोचना करे, इसे नज़रअंदाज़ करना असंभव है।

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