आवाज़ जो रूह बन गई : नुसरत फ़तह अली ख़ान की कहानी

कुछ आवाज़ें सिर्फ़ कानों को नहीं छूतीं, बल्कि रूह तक पहुँचती हैं। ऐसी ही एक आवाज़ थी नुसरत फ़तह अली ख़ान की — जिसे सुनने वाला हर इंसान कुछ पल के लिए इस दुनिया से दूर, आध्यात्मिक एक संसार में पहुँच जाता। दुनिया ने उन्हें अलग-अलग नामों से जाना: “एल्विस प्रेस्ली ऑफ़ ईस्ट”, “पाकिस्तान का बॉब मार्ली”, “पावारोती ऑफ़ ईस्ट” और लाहौर में तो उन्हें सम्मानपूर्वक “शहंशाह-ए-कव्वाली” कहा जाता था।

पीटर गैब्रियल ने उनके संगीत के जादू को इस तरह बयान किया, “मैंने किसी आवाज़ में इस हद तक रूह की मौजूदगी नहीं पाई। नुसरत की आवाज़ इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण थी कि किस हद तक एक गहरी आवाज़ आत्मा को छू और हिला सकती है।”

पियर एलेन बॉड अपनी पुस्तक ‘नुसरत: द वॉइस ऑफ़ फ़ेथ’ में लिखते हैं, “स्टेज पर वह भव्य व्यक्ति, अपनी बाँहें फैली, जैसे ईश्वर से संवाद कर रहा हो। जापान के लोग उन्हें ‘गाता हुआ बुद्ध’ कहते, लॉस एंजेलेस में ‘स्वर्ग की आवाज़’, पेरिस में ‘पावारोती ऑफ़ ईस्ट’ और लाहौर में ‘शहंशाह-ए-कव्वाली’।”


वंश और प्रारंभिक जीवन

नुसरत फ़तह अली ख़ान का जन्म 13 अक्टूबर 1948 को लाहौर में हुआ। उनका परिवार संगीत के लिए जाना जाता था। उनकी वंशावली नौ पीढ़ियों तक क़व्वालों की थी। उनके दादा मौलाबख़्श और पिता फ़तह अली, साथ ही चाचा मुबारक अली, अविभाजित भारत के प्रमुख क़व्वालों में शुमार थे।

फ़तह अली चाहते थे कि उनका बेटा डॉक्टर बने, इसलिए उन्होंने नुसरत को संगीत से दूर रखा। किंतु संगीत की जिद नुसरत में इतनी प्रबल थी कि उन्होंने हारमोनियम बजाने की कोशिश की। जब उनके पिता ने उन्हें देखा, तो मुस्कुराकर कहा, “तुम हारमोनियम बजा सकते हो, लेकिन पढ़ाई पर असर नहीं पड़ना चाहिए।”

इस अनुमति ने नुसरत के संगीत जीवन की नींव रख दी। उन्होंने तबले और हारमोनियम का रियाज़ शुरू किया, और अपने पिता से संगीत की बारीकियाँ सीखीं। हालांकि, 1964 में पिता का गले के कैंसर से निधन हो गया। उस समय नुसरत हाई स्कूल के अंतिम वर्ष में थे।

उनके पिता के जाने के बाद नुसरत की ज़िंदगी में एक रहस्यमयी घटना घटी। एक टीवी डॉक्यूमेंट्री में उन्होंने बताया, “एक रात मैंने सपने में देखा कि मेरे वालिद मुझे एक जगह ले गए और गाने के लिए कहा। मैं बोला, मैं गा नहीं सकता, तो उन्होंने कहा, तुम मेरे साथ गाओ। मैंने गाना शुरू किया, और जब आँख खुली, तो मैं गा रहा था।”

उन्होंने चाचा मुबारक अली को यह सपना सुनाया। चाचा ने कहा कि यह अजमेर शरीफ़ की दरगाह है, जहां उनके पिता और दादा अक्सर गाया करते थे। कुछ वर्षों बाद जब नुसरत को अजमेर जाने का मौका मिला, तो उन्होंने वही स्थान पहचान लिया और अपने सपने को वास्तविकता में बदल दिया।


भारत से दुनिया तक: पहली अंतरराष्ट्रीय सफलता

1979 में भारत के फ़िल्म निर्माता राज कपूर ने उन्हें अपने बेटे ऋषि कपूर की शादी में आमंत्रित किया। नुसरत ने पहली बार भारत में स्टेज पर गाया, और उनकी गायकी ने हर किसी को मंत्रमुग्ध कर दिया। उनके तबलावादक दिलदार हुसैन ने ‘आउटलुक’ पत्रिका को बताया, “महफ़िल रात दस बजे शुरू हुई और सुबह सात बजे खत्म हुई। नुसरत ने लगातार ढाई घंटे तक ‘हल्का हल्का सुरूर’ गाया और लोगों को झूमने पर मजबूर कर दिया।”

अजमेर शरीफ़ की दरगाह में गाना उनके लिए एक आध्यात्मिक अनुभव था। वहां उन्होंने ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के क़दमों के सामने पहली बार विदेशी कव्वाल के तौर पर गाने की इजाज़त पाई। इस यात्रा ने उन्हें दुनिया भर में सूफ़ी संगीत की पहचान बनाने की प्रेरणा दी।


सूफ़ी और समकालीन संगीत का संगम

नुसरत ने अपने पिता और दादा की परंपरा का पालन करते हुए पंजाब के सूफ़ी संतों — बुल्ले शाह, बाबा फ़रीद और शाह हुसैन — की रचनाएँ गाईं। लेकिन उनके संगीत का जादू सिर्फ़ परंपराओं तक सीमित नहीं था। उन्होंने आधुनिक शायरों के कलाम और लोकप्रिय संगीत को भी अपने गायन में शामिल किया।

1981 में उन्हें ब्रिटेन में गाने का आमंत्रण मिला। वहां उन्होंने सिख गुरुद्वारों में भी कॉन्सर्ट किए और गुरु ग्रंथ साहिब के शबद गाए। धीरे-धीरे उनकी ख्याति नॉर्वे, स्वीडन, डेनमार्क, दक्षिण अफ़्रीका और खाड़ी देशों तक फैल गई।

1988 में उनकी मशहूर कव्वाली ‘अल्ला हू’ ने पूरी दुनिया में धूम मचा दी। पीटर गैब्रियल ने कहा, “जब भी मैं उनका संगीत सुनता हूँ, मेरी गर्दन के पिछले हिस्से में सिहरन दौड़ जाती है।”

मशहूर गायक मिक जैगर भी उनके मुरीद बने। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने बताया कि लंदन में एक शो में मिक जैगर तीन घंटे तक नुसरत की गायकी सुनते रहे।


फ़िल्मों और आधुनिक संगीत में योगदान

नुसरत की आवाज़ ने भारतीय फ़िल्मों में भी जगह बनाई। उन्होंने राहुल रवेल की फ़िल्म ‘और प्यार हो गया’ और जावेद अख़्तर के साथ ‘संगम’ एल्बम में अपनी आवाज़ दी। जावेद अख़्तर ने कहा, “उनकी धुनें दिल से निकलती थीं। संगीत उनके लिए ध्यान का साधन था।”

शेखर कपूर की फ़िल्म ‘बैंडिट क्वीन’ का संगीत नुसरत ने दिया। कपूर ने कहा, “नुसरत के साथ काम करना ईश्वर के सबसे नज़दीक जाने के समान था।”


विदेशों में अध्यापन और जीवन दर्शन

सितंबर 1992 से मार्च 1993 तक नुसरत ने अमेरिका की सिएटल यूनिवर्सिटी में संगीत पढ़ाया। कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर हिरोमी लोरेन सकाता लिखती हैं, “उनके पांच शयनकक्षों वाले घर में हमेशा दोस्त, चाहने वाले और छात्र रहते थे। उन्हें सादगी पसंद थी और वे सप्ताह में तीन दिन पढ़ाते और बाकी समय अमेरिका के अलग-अलग शहरों में शो करते।”

विदेश में अपने अनुभवों से नुसरत ने अपने गायन की रेंज बढ़ाई। उन्होंने शुद्ध शास्त्रीय संगीत से शुरुआत कर लोक और सुगम संगीत को अपने तरकश में शामिल किया। उन्होंने कठिन रचनाओं को सरल बनाया ताकि आम लोग उनसे जुड़ सकें।


स्वास्थ्य और अंतिम दिन

कई सालों तक लगातार गाने के कारण नुसरत का स्वास्थ्य प्रभावित हुआ। 1993 में अमेरिका में मेडिकल जांच में उनके दिल के कई दौरे सामने आए। गुर्दे के ऑपरेशन और पथरी की समस्याएँ भी उभर कर आईं।

1995 में यूरोप दौरे के दौरान उनकी तबीयत बिगड़ी और कई शो कैंसिल किए गए। 11 अगस्त 1997 को अमेरिका जाते समय उनकी तबीयत गंभीर हो गई। लंदन के क्रॉमवेल अस्पताल में 16 अगस्त को उन्हें दिल का दौरा पड़ा और मात्र 48 वर्ष की आयु में नुसरत फ़तह अली ख़ान का निधन हो गया।

दिलचस्प बात यह है कि बीस साल पहले, 1977 में इसी दिन एल्विस प्रेस्ली का निधन हुआ था।


विरासत और वैश्विक सम्मान

नुसरत के योगदान को विश्व स्तर पर मान्यता मिली। 2006 में न्यूयॉर्क टाइम्स ने उन्हें बीसवीं सदी के साठ एशियाई हीरोज़ में शामिल किया। 2007 में आउटलुक ने लिखा कि उनकी मृत्यु के एक दशक बाद भी नुसरत भारतीय उप-महाद्वीप के सबसे मशहूर गायक हैं।

अमेरिकी नेटवर्क नेशनल पब्लिक रेडियो ने उन्हें दुनिया की 50 महान आवाज़ों की सूची में शामिल किया और रिकॉर्ड बिक्री के मामले में एल्विस प्रेस्ली से भी आगे रखा। 2009 में फ़िल्म निर्देशक मीरा नायर ने अपने जीवन का साउंडट्रैक चुनते हुए नुसरत की ‘अल्ला हू’ को चुना।


नुसरत फ़तह अली ख़ान सिर्फ़ एक गायक नहीं थे। वे एक संस्कृति, एक परंपरा और एक आध्यात्मिक यात्रा के वाहक थे। उनकी आवाज़ ने सीमाओं, धर्म और भाषा की दीवारों को तोड़ दिया। चाहे पाकिस्तान की दरगाह हो, भारत का स्टेज या यूरोप और अमेरिका के कॉन्सर्ट, उनकी आवाज़ ने हर जगह रूह को छुआ।

उनकी विरासत आज भी जीवित है — संगीत के साधकों और प्रशंसकों के दिलों में। नुसरत की आवाज़ हमें याद दिलाती है कि संगीत केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि आत्मा की आवाज़ है। और इस आवाज़ ने वास्तव में रूह को स्पर्श किया, दुनिया को झूमा दिया और कव्वाली को शिखर तक पहुँचाया।

स्रोत : बीबीसी हिंदी में रेहान फ़ज़ल साहब की विवेचना से

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