अरावली की 100 मीटर परिभाषा पर सवाल : उदयपुर से उठी आवाज़ ने ही किया खंडन

उदयपुर। अरावली पर्वतमाला को लेकर वर्षों से चली आ रही रिचर्ड मर्फी की 100 मीटर ऊँचाई आधारित परिभाषा अब खुद उसी धरती से खारिज की जा रही है, जहाँ से इसकी शुरुआत हुई थी। वर्ष 2002 में उदयपुर से सामने आई इस परिभाषा को अब वहीं के भूवैज्ञानिकों, भूगोलविदों और पर्यावरण विशेषज्ञों ने अधूरी, अवैज्ञानिक और अरावली के संदर्भ में अनुपयुक्त करार दिया है।

प्रकृति रिसर्च संस्थान, इंस्टीट्यूट ऑफ टाउन प्लानर्स इंडिया, लक्षप्रा फाउंडेशन और इंटैक के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में विशेषज्ञों ने एक स्वर में कहा कि अरावली को केवल ऊंचाई के आधार पर परिभाषित करना वैज्ञानिक दृष्टि से भ्रामक है। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह परिभाषा वर्ष 1954 की हेमंड लैंडफॉर्म क्लासिफिकेशन पर आधारित थी, जो भारत की विशिष्ट पर्वत श्रृंखलाओं—विशेषकर अरावली और हिमालय—पर लागू नहीं की जा सकती।

विशेषज्ञों का मानना है कि अरावली केवल एक भौगोलिक संरचना नहीं, बल्कि एक जीवित पारिस्थितिकी तंत्र है, जिसमें भूविज्ञान, जलविज्ञान, संस्कृति, इतिहास और जैव विविधता गहराई से जुड़ी हुई है। ऐसे में केवल ऊँचाई को आधार बनाकर इसके संरक्षण या दोहन का निर्णय लेना गंभीर भूल है।

संगोष्ठी में यह भी कहा गया कि केंद्र सरकार द्वारा पूरी अरावली श्रृंखला को एक सतत भू-वैज्ञानिक संरचना मानने की घोषणा स्वागतयोग्य कदम है। इससे यह उम्मीद जगी है कि वर्षों से चला आ रहा भ्रम और नीतिगत असमंजस अब समाप्त होगा।

वक्ताओं ने उदयपुर में अरावली शोध संस्थान स्थापित करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया, जिससे इसके सामाजिक, सांस्कृतिक, पुरातात्विक, आध्यात्मिक, पर्यावरणीय और भूवैज्ञानिक पहलुओं पर वैज्ञानिक अध्ययन हो सके। विशेषज्ञों ने चेताया कि रिसॉर्ट निर्माण, खनन और अनियंत्रित विकास गतिविधियाँ अरावली के अस्तित्व को गंभीर खतरे में डाल रही हैं।

पूर्व नगर नियोजक बी.एस. कानावत ने अरावली को जियो-हेरिटेज बताते हुए कहा कि यहां हुए अंधाधुंध निर्माण आने वाली पीढ़ियों के लिए संकट पैदा करेंगे। वहीं इंटैक के पूर्व कन्वीनर प्रो. बी.पी. भटनागर ने खनन की आवश्यकता स्वीकार करते हुए भी पर्यावरणीय पुनर्स्थापन (Reclamation) की वैज्ञानिक योजना को अनिवार्य बताया।

सामाजिक दृष्टि से भी यह मुद्दा महत्वपूर्ण है। वक्ताओं ने कहा कि जिस तरह अरावली के विनाश ने जल संकट, जलवायु असंतुलन और जैव विविधता पर असर डाला है, उसे देखते हुए समाज को भी एकजुट होना होगा। यही कारण है कि अब उदयपुर, जिसने इस विवादित परिभाषा को जन्म दिया था, वही इसके सुधार का केंद्र बन रहा है।

यह पूरी बहस इस ओर संकेत करती है कि अरावली को लेकर नीति-निर्माण अब केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक, सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी का विषय बन चुका है।

सुखाड़िया विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर डॉ. विनोद अग्रवाल, डॉ. पी. आर. व्यास, प्रो. सीमा जालान तथा डॉ. अनिल मेहता ने स्पष्ट किया कि अरावली और हिमालय जैसी पर्वतमालाएं वैश्विक स्तर पर विशिष्ट हैं, जिन पर सामान्यीकृत परिभाषाएं लागू नहीं की जा सकतीं। उन्होंने कहा कि आधुनिक तकनीकों जैसे जियो-स्पेशियल टेक्नोलॉजी, रिमोट सेंसिंग और GIS के दौर में केवल ऊंचाई आधारित मापदंडों का प्रयोग आश्चर्यजनक है।

विशेषज्ञों ने यह भी रेखांकित किया कि अरावली केवल एक भौगोलिक संरचना नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, पुरातात्विक, आध्यात्मिक और पारिस्थितिक विरासत का केंद्र है। यह क्षेत्र आहड़ सभ्यता का भी प्रमुख केंद्र रहा है, जो इसे जियो-हेरिटेज का दर्जा देता है।

पूर्व वरिष्ठ नगर नियोजक बी.एस. कनावत ने चेताया कि रिसॉर्ट, निर्माण गतिविधियों और पहाड़ियों की कटाई से अरावली को गंभीर क्षति पहुंच रही है। वहीं इंटैक के पूर्व कनवीनर और पूर्व कुलपति प्रो. बी.पी. भटनागर ने कहा कि खनन की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन उसके लिए वैज्ञानिक पुनर्स्थापन (Reclamation) नीति अनिवार्य होनी चाहिए।

संगोष्ठी में सर्वसम्मति से यह निष्कर्ष निकला कि : अरावली के सीमांकन का आधार केवल ऊँचाई नहीं हो सकता। सुप्रीम कोर्ट के 100 मीटर संबंधी निर्णय पर पुनर्विचार आवश्यक है। उदयपुर में अरावली रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना की जानी चाहिए।

अरावली को प्राकृतिक ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर के रूप में संरक्षित किया जाए।

वक्ताओं ने यह भी कहा कि जिस प्रकार उदयपुर से यह अधूरी परिभाषा सामने आई थी, उसी प्रकार अब उदयपुर ही इसके वैज्ञानिक सुधार का केंद्र बनेगा। समाज, सरकार और विशेषज्ञों को मिलकर आने वाली पीढ़ियों के लिए अरावली के सतत विकास और संरक्षण का मार्ग प्रशस्त करना होगा।

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