15 June, 2025

एक मौन चीख़ जो कोई सुन न सका…सलूंबर के पूर्व सांसद के होनहार बेटे ने जीवनलीला समाप्त की, लाइब्रेरी में मिला शव

उदयपुर। कभी किसी पिता का अभिमान… कभी समाज के लिए कुछ कर गुजरने की चाह रखने वाला युवा… और आज एक सन्नाटा… एक ख़ामोश दीवारें… कुछ अनकही बातें…
यह कहानी है सलूंबर के पूर्व सांसद स्व. महावीर भगोरा के बेटे आशीष भगोरा की, जिसने जिंदगी की किताब को खुद ही आख़िरी पन्ना लिखकर बंद कर दिया।

शनिवार की सुबह उदयपुर शहर के अंबामाता थाना क्षेत्र में उस वक्त अजीब सी बेचैनी फैल गई जब छात्रों से भरी एक लाइब्रेरी के अंदर एक जीवन हमेशा के लिए शांत मिला। 40 वर्षीय आशीष भगोरा— जो पीएचडी होल्डर थे, जिन्होंने किताबों के बीच रहना चुना था, जिन्होंने अपनी ज़िंदगी को ज्ञान बाँटने में लगा दिया था— आज उसी लाइब्रेरी की छत के कुंदे से लटकते गमछे के टुकड़े के नीचे फर्श पर मृत मिले।

जिस कमरे में कभी नोट्स की आवाज़ गूंजती थी… किताबों के पन्ने पलटते थे… वहाँ आज बस ख़ामोशी थी। सुबह 7:15 बजे जब कुछ छात्र पढ़ने पहुँचे तो उन्हें लगा कि शायद आशीष कहीं व्यस्त होंगे। पुकारा… कोई जवाब न मिला… दरवाज़ा खोला… और जो दिखा, उसने सबको सन्न कर दिया।

छत पर लटकता गमछे का टुकड़ा… और नीचे बेजान पड़े आशीष भगोरा। वो आशीष, जो कभी पिता के संघर्षों की विरासत थे। जिन्होंने समाज के लिए सपने देखे थे। जिनके बच्चों के लिए भविष्य बुनने का सपना था। जो खुद बच्चों के बीच रहकर उन्हें बेहतर बनाने का हुनर सिखाते थे।

तीन महीने से वे इसी लाइब्रेरी की पहली मंज़िल के कमरे में रह रहे थे। शायद मन में कोई ऐसा दर्द था, जिसकी थाह कोई न ले सका। पुलिस ने कहा कि आत्महत्या का कारण अभी साफ़ नहीं है। लेकिन आसपास के लोगों ने बताया कि वे कुछ समय से तनाव में थे… पर इस तनाव का सच क्या था… यह गुत्थी बन गई है।

आशीष के पिता, दिवंगत महावीर भगोरा— सलूंबर के सांसद रहे। कभी विधायक, कभी मंत्री। राजनीति का लंबा सफर… लेकिन निजी जीवन में कड़वे मोड़ भी कम न रहे। ‘वोट के बदले नोट’ कांड से लेकर कोरोना से असमय निधन तक… और अब बेटे के जीवन का यह अंतिम अध्याय।

एक परिवार जिसकी राजनीतिक गाथाएं थीं, अब शोकगाथा में बदल गई। भाजपा जिलाध्यक्ष गजपाल सिंह राठौड़ से लेकर स्थानीय नेता तक स्तब्ध हैं। सबके मन में एक ही सवाल— क्यों?

आशीष कुछ समय पहले कांग्रेस में भी शामिल हुए थे। उनकी लाइब्रेरी में रोज़ 70 छात्र पढ़ने आते थे। शायद वे चाहते थे कि समाज के गरीब, पिछड़े बच्चे आगे बढ़ें… शायद पिता के अधूरे सपने पूरे हों। पर क्या भीतर से वो अकेले हो चुके थे? क्या उनकी मुस्कान के पीछे ऐसा दर्द छुपा था जिसे कोई पढ़ न सका?

आज उनके मासूम बेटे और बेटी के सिर से पिता का साया उठ गया। एक घर सूना हो गया। एक लाइब्रेरी… जहाँ कभी ज्ञान का उजाला था… अब वहां सन्नाटा पसरा है।

यह सिर्फ एक व्यक्ति की मौत नहीं है। यह एक सवाल है— क्या हम अपने आस-पास के लोगों के दर्द को देख पाते हैं? क्या कोई आशीष अगले मोड़ पर खड़ा है, जिसके भीतर का तूफ़ान हम महसूस नहीं कर पा रहे?

आशीष चले गए… लेकिन पीछे छोड़ गए हैं अनगिनत सवाल… टूटी उम्मीदें… और एक ऐसा दर्द… जो देर तक उदयपुर की इन गलियों में गूंजता रहेगा।

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