भगवान जगन्नाथ को समर्पित ओडिशा का गोटीपुआ नृत्य : जब लड़के बनते हैं नर्तकियां और भक्ति में रचते हैं इतिहास


उदयपुर। भगवान जगन्नाथ को समर्पित ओडिशा का प्रसिद्ध गोटीपुआ नृत्य अपनी अनूठी शैली, भक्ति भाव और सांस्कृतिक गरिमा के कारण सदियों से कला प्रेमियों को आकर्षित करता आ रहा है। इस नृत्य की विशेषता यह है कि इसमें लड़के स्त्री वेश धारण कर भगवान जगन्नाथ की सेवा करते हैं। यह परंपरा आज भी पूरी श्रद्धा और अनुशासन के साथ निभाई जा रही है।

शिल्पग्राम उत्सव में गुरुवार को मुक्ताकाशी मंच पर गोटीपुआ नृत्य की भव्य प्रस्तुति दी जाएगी। इस नृत्य को प्रस्तुत करने वाले कलाकारों को भगवान जगन्नाथ की सेवा के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जाता है। मान्यता है कि पुरी स्थित भगवान जगन्नाथ की सेवा का अवसर अत्यंत दुर्लभ होता है और गोटीपुआ नर्तकों को यह सौभाग्य प्राप्त होता है।

डांस ग्रुप के लीडर बसंत प्रधान बताते हैं कि गोटीपुआ नृत्य की जड़ें ओडिशी शास्त्रीय नृत्य से जुड़ी हैं। प्राचीन काल में यह सेवा देवदासियां करती थीं, बाद में अन्य महिलाएं इस परंपरा से जुड़ीं। वर्ष 1509 ईस्वी के बाद यह जिम्मेदारी लड़कों को सौंपी गई। उस समय यह तय किया गया कि वे स्त्रियों की तरह वेश धारण कर भगवान की सेवा करेंगे। इसमें मंदिर की सफाई से लेकर नृत्य प्रस्तुति तक सभी कार्य शामिल थे।

गोटीपुआ शब्द का अर्थ भी खास है। ‘गोटी’ का अर्थ है ‘एक’ और ‘पुआ’ का मतलब ‘लड़का’। यानी गोटीपुआ का अर्थ हुआ – एक लड़का। इस परंपरा में शामिल प्रत्येक नर्तक को गोटीपुआ कहा जाता है। खास बात यह है कि गोटीपुआ नर्तकों के लिए किसी भी मंदिर में प्रवेश वर्जित नहीं होता।

समय के साथ गोटीपुआ नृत्य में एक्रोबेटिक तत्व भी जुड़ गए हैं। कठिन शारीरिक संतुलन और लचीलेपन से भरे करतब दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। इसके बावजूद नर्तक अपनी प्रस्तुति में कोमलता और सौंदर्य बनाए रखते हैं।

वेशभूषा भी है खास
गोटीपुआ नर्तक साड़ी, ब्लाउज, उत्तरी (कंधे से कमर तक का पट्टा), पंची (कमरबंद), कूचो और धोतीनुमा पायजामा पहनते हैं। वेशभूषा दुल्हन की तरह सजी होती है। आभूषणों में बाहों में बाहुटी, कलाई में बाजू, गले में माली (नाभि तक लंबा हार) और पैरों में घुंघरू पहनाए जाते हैं। पैरों के पंजों पर आलता लगाकर पूर्ण स्त्री रूप दिया जाता है।

गोटीपुआ नृत्य न केवल कला का अद्भुत उदाहरण है, बल्कि यह भक्ति, परंपरा और अनुशासन का जीवंत प्रतीक भी है, जो आज भी भगवान जगन्नाथ की महिमा को जीवंत बनाए हुए है।

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