फोटो : कमल कुमावत

उदयपुर। भारतीय राजनीति के एक सादगीपूर्ण और संगठक व्यक्तित्व, भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री एवं चार राज्यों के प्रभारी सुनील बंसल, जब वन नेशन, वन इलेक्शन के संयोजक के रूप में उदयपुर पहुंचे, तो यह केवल एक दौरा नहीं था — यह यादों की वापसी, रिश्तों का पुनर्स्पर्श और संगठन की जड़ों से जुड़ाव की पुनर्पुष्टि थी।
लंबे समय बाद वे पार्टी के किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में शिरकत कर रहे थे, लेकिन यहां उनका आना केवल औपचारिकता नहीं थी — यह एक आत्मीय वापसी थी, जैसे कोई अपने पुराने घर की देहरी पर कदम रखे और हर ईंट कुछ कहने लगे।

जहां नींव रखी थी, वहीं लौटे बंसल
सुनील बंसल ने अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत उदयपुर में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) के संगठन मंत्री के रूप में की थी। उस दौर में उन्होंने न केवल संगठन खड़ा किया, बल्कि युवाओं के भीतर विचारधारा का दीपक जलाया, जो आज भी टिमटिमा रहा है।
तब जिनके साथ उन्होंने चाय पी, पोस्टर चिपकाए, रातभर बैठकें कीं — उनमें से कई आज राजनीतिक जिम्मेदारियों से दूर हैं, लेकिन दिल के रिश्तों की गहराई अब भी वैसी ही है।
उनमें एक नाम अतिरिक्त महाधिवक्ता प्रवीण खंडेलवाल का भी है। जब बंसल उनके निवास पर मिलने पहुंचे, तो वह सिर्फ एक शिष्टाचार भेंट नहीं थी — वह उन दिनों की पुनरावृत्ति थी जब आदर्श, संघर्ष और मित्रता तीनों एक ही चटाई पर बैठते थे।

भावनाओं की वो गूंज, जिससे पद छोटे लगने लगे
पार्टी कार्यालय और कार्यक्रम स्थल पर मौजूद कार्यकर्ताओं के बीच एक अजीब सी हलचल थी — गर्व, अपनापन, और नमी से भरी आंखों का मेल। वे कार्यकर्ता जिनके पास आज कोई पद नहीं, लेकिन जिनके साथ बंसल ने संगठन खड़ा किया — वे खुद को बड़ा महसूस कर रहे थे, और वर्तमान के पदाधिकारी कद में कहीं पीछे दिख रहे थे।
सुनील बंसल ने किसी को नाम से, किसी को चेहरों से पहचान लिया, जैसे वक्त की गर्द उनके स्मृति-पटल को छू भी नहीं सकी। हर किसी को उन्होंने तवज्जो दी — न कोई ऊँचा, न कोई नीचा।

सरलता जो ऊंचाई में नहीं खोई
कार्यकर्ताओं के बीच एक ही बात बार-बार कही जा रही थी — इतने बड़े पद पर होते हुए भी बंसल की सरलता, विनम्रता और सहजता ज़रा भी नहीं बदली। उनका झुककर मिलना, पुराने साथियों का हाल पूछना, बच्चों के नाम याद रखना — यह कोई औपचारिकता नहीं थी, यह रिश्तों की ईमानदारी थी।
इसके बरअक्स, कुछ मौजूदा पदाधिकारियों की ठसक और आत्ममुग्धता साफ झलक रही थी। उनके चेहरे पर जिम्मेदारी कम और दिखावा ज़्यादा था।
संगठन की आत्मा फिर से मुस्कुराई
बंसल की उपस्थिति ने जैसे संगठन की पुरानी आत्मा को फिर से जगा दिया — वो भावना, जिसमें पद नहीं सेवा का भाव था, और नेतृत्व नहीं सहभागिता का बोध था।
कार्यकर्ताओं के चेहरों पर जो मुस्कान थी, वो इसलिए नहीं कि कोई बड़ा नेता आया, बल्कि इसलिए कि कोई ‘अपना’ आया था — वही, जो संघर्षों का साथी था, जिसने साथ खाया, साथ जिया, और आज भी वैसा ही है।
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