
उदयपुर। वैसे उदयपुर की तासीर अलग है — झीलें, हवेलियां, और अक्सर टूरिस्टों की हलचल। पर कभी कभी शहर की तासीर पर अपराध की एक परछाई बड़ी तेजी से फैलती है। इस बार दिनदहाड़े, भीड़-भाड़ वाली सड़कों पर, चमचमाती पावर बाइकें जैसे ही कोई मोड़ लेतीं, एक-दो सेकंड में किसी औरत की चेन गायब हो जाती। कुछ चीखें, कुछ धक्का-मुक्की, और फिर गैंग की गर्दन में पसीना आ जाता — एक मुकम्मल योजना।
पिछले कुछ दिनों से लोगों के चेहरे पर डर सा बैठ गया। महिलाएं बाज़ार में मोबाइल पर बात करते हुए भी सतर्क थीं, चौराहों पर कदम तेज कर देतीं। दुकानें अपने इलाके की CCTV फुटेज बार-बार देखतीं। और हिरणमगरी थाना के लॉगबुक में रोज़ नई FIR की लाइनें जुड़ती जा रही थीं — आधे में नंबर प्लेट टूटी लिखी हुई।
हिरणमगरी थाने की चौकी का कमरा सुबह-शाम सीसीटीवी क्लिप्स से भरा रहता। एक टेबल के चारों ओर बिखरी फुटेज की स्क्रीनें, कागज़ के नोट-पैड और थके हुए चेहरों पर वही एक ही निशान — थकावट के साथ जिज्ञासा भी। एसपी योगेश गोयल का चेहरा कठोर था, वही आदमी जो शहर की कई तगड़ी मामलों को सुलझा चुका था, पर इस बार मामला अलग था—किसी ‘सिस्टमैटिक’ गैंग का।
“दिन में वारदातें हो रही हैं। लोग सड़क पर बेख़ौफ़ नहीं चल पा रहे।” गोयल ने कहा। उनके शब्दों में थकान नहीं, सख्ती थी।
उन्होनें ‘टारगेट टीम’ बनाने का आदेश दिया — एक विशेष, सादा-वेश में चलने वाली यूनिट जो भीड़ में घुल-मिल कर निगरानी करे। टीम में हेड कॉन्स्टेबल राजेन्द्र सिंह, भगवतीलाल और कांस्टेबल राजकुमार जाखड़, नंदकिशोर, किरेन्द्र और हेमेन्द्र शामिल किये गये। हर किसी के चेहरे पर एक अजीब सी चमक थी — थकान के साथ अनिवार्यता का बोझ।
राजेंद्र सिंह ने कहा “हम उन्हें उनके तरीके पर पकड़ेगें,”। “सादा कपड़े, नज़रें खुली रखें। कैमरों के हर फ्रेम को रिव्यू करो — छोटी-सी चीज़ भी सुराग दे सकती है।”
टीम ने अलग-अलग क्षेत्रों में खुफिया निगरानी बढ़ाई। सीसीटीवी से अनगिनत फुटेज निकाले गये, 100 से ज्यादा बाइक सवारों को रोका गया और पूछताछ हुई। लेकिन हर बार गैंग की चाल इतनी तेज और प्रोफेशनल निकली कि सच्चे सुराग मिलना मुश्किल हो रहा था। लोग बदलते कपड़े, बदलती बाइक और भीड़ का सहारा—ये सब गैंग की स्किल रही।
पकड़े गए हर नाम के पिछे की फ़ाइलें खुलीं तो एक पैटर्न सामने आया।

भैरूलाल मीणा — छोटे-उंदरी का रहने वाला, पहले भी एटीएम स्ट्रॉन्ग रूम के टूट-फूट के प्रयास में वांछित रहा। उसके खिलाफ छह मामले दर्ज थे। उसकी सूरत से साफ़ था कि वह अकेला न था; उसके पास पुराने संपर्क और जोखिम उठाने की आदत थी।
गोविंद (पिता कालूलाल) — दर्जनों लूट और आर्म्स एक्ट से जुड़े मामले। उसके साथ रहे लोगों की शिकायतों में उसकी बेशर्मिता और हठधर्मिता का ज़िक्र था।
जितेन्द्र मीणा, सुनील सिंह, सुनील मीणा — हर एक का क्रिमिनल रिकॉर्ड अलग-अलग मामलों से भरा था; चोरी, नाजायज़ हथियार, परवाह न करने वाला रवैया। और एक नाबालिग — गैंग का हिस्सा, पर दिखाई दे रहा था कि वह मजबूरी और डर से जुड़ा हुआ है, न कि रूह़-ख़राबी से।
टीम ने उनके पीछे की कड़ी तलाशनी शुरू की — किसने कहां से बाइक पाई, किसने कहां छिपने की चाबियां दीं, और कौन-सा रूट इन्होंने इस्तेमाल किया। धीरे-धीरे पैटर्न उभरने लगे: हर वारदात के बाद गैंग नवरात्र या किसी त्योहार में मंदिरों और मेलों में छिप जाता; भीड़ का फायदा लेकर अपने कपड़े और बाइक बदल देता।
राजकुमार ने एक दिन बताया, “वे हर दो-तीन दिन में बाइक बदल लेते हैं। नंबर प्लेट को काट डाला जाता है — आधी रहती है, ताकि पहचान मुश्किल हो।”
गैंग की पेशेवरियत और तेज़ी टीम के लिए खतरे की घंटी थी। लेकिन टीम भी ठोस थी — एक-एक फुटेज को एकत्र किया जा रहा था, और हर छोटे सुराग को जोड़ने की कोशिश की जा रही थी।
गैंग ने अपनी चालाकी में एक नया अध्याय जोड़ दिया था — वे नवरात्र के मेलों और मंदिरों में छिप जाते। वहां भक्तों की भीड़, ढेरों मोहरे, और भक्तिमय वातावरण में उनकी मौजूदगी कमज़ोरियों से बचाती। टारगेट टीम ने इस चाल का अध्ययन किया।
भगवतीलाल ने बताया- “वे वही भीड़ में मिलकर चुप हो जाते हैं,”। “वो लोग भक्तों की तरह चलते हैं, और फिर अलग रास्ते पकड़ लेते हैं।” उन्होंने मंदिर परिसर के चारों और सतर्कता बढ़ाई — मालों के पास कैमरा, मोबाइल ट्रैकिंग, और कुछ गुप्त लोगों की मदद ली गयी।
एक रात, मंदिर परिसर के सीसीटीवी फुटेज में एक तरह की दोबारा-सी चाल दिखाई पड़ी; वही ऑरेंज केटीएम जैसी बाइक, लेकिन इस बार कैमरे ने उसे एक खास मोड़ पर कैद कर लिया — नंबर प्लेट आधी टूटी हुई, पीछे से आवाज़ में तेज़ी, और हेलमेट पर छोटे-छोटे स्क्रैच। टीम ने उसी फ्रेम को बड़ी ही बारीकी से स्केल किया और उसे अपने इंटेल लिंक्स में जोड़ दिया।
एक दोपहर, सेक्टर 5 में एक चौक पर वही टूटी नंबर प्लेट वाली केटीएम दिखाई दी। भगवतीलाल ने रौशनी की दिशा बदली, राजेन्द्र ने बाइक मोड़ी और पूरा पीछा शुरू किया।
पकड़ने की उसकी योजना पर दौड़ते हुए—धूल, धक्का, और सड़कों पर त्रुटियां—हर कदम पर टीम की धड़कनें तेज हो गयीं। गैंग भी तेज़ी से रेस कर रहा था; उनकी बाइक्स शोर करतीं और हवा चिकनी होती। 3 किलोमीटर की तेज़ रेस के बाद एक तेज मोड़ पर गैंग की बाइक बैलेंस खो बैठी और पलट गयी।
धूल उठी, चेहरे बिखरे, और पुलिस ने घेराव कर लिया। हेलमेट हटते ही नाम सामने आए — गोविंद, भैरूलाल, जितेन्द्र, सुनील सिंह और सुनील मीणा — और एक छोटा सा लड़का जो फुफकारता हुआ बैठा था। सन्नाटा कुछ पलों के लिए छाया।
राजेन्द्र ने फिर भी संयम से कहा, “हाथ ऊपर करो। कोई घात न पनाह पाए।” उन्होंने आरोपियों को हथकड़ी लगाई और पूछा — “कहां है बाकी बाइक? और आपको किसने ज्वेलर्स के शोरूम के नक्शे दिए?”
एक मोबाइल की जांच में पुलिस ने व्हाट्सएप के समूह संदेश और तस्वीरें पाईं — ज्वेलरी शोरूम, ग्रीन लाइन मार्ग, एग्जिट पॉइंट्स और समय। संदेशों में स्पष्ट रूप से ‘डकैती की योजना’ का जिक्र था। अगर यह योजना पकड़ी न जाती, तो शहर का एक बड़ा ज्वेलर्स शोरूम बड़ा नुकसान देख सकता था।
थाने में पूछताछ शुरू हुई। नाबालिग लड़के की कहानी अलग थी। वह हथकड़ी में कांप रहा था, उसकी आंखों में अफ़सोस और भय था। उसने बताया कि परिवार की उधारी और गांव में बदहाल हालात ने उसे इस रास्ते पर धकेला। “मैंने सोचा था… बस थोड़ी कमाई कर लूंगा,” उसने बमुश्किल कहा। उसकी आवाज़ में कोई बहादुरी नहीं थी—सिर्फ बदले की उस लालसा का बोध जो उसे घरेलू मजबूरी का समाधान समझायी गयी थी।
गोविंद और भैरूलाल ने शांति से पूछताछ का सामना नहीं किया। गोविंद ने कई बार आरोपों को टाला और नामों को झटकाने की कोशिश की। पर जब पुलिस ने चैट, लोकेशन पिंग और बाइक के मालिकों के हवाले से ब्योरा रखा, तो चेहरा बदल गया।
“हमने सोचा था कि चेन स्नैचिंग से जल्दी पैसा आएगा,” जितेन्द्र ने कहा पर उसकी आवाज़ में अब कठिनाई थी। “पर कुछ लोगों ने दबाव बनाया—उन्होंने कहा कि अगर हम बड़े शोरूम को नहीं मारेंगे तो…” उसने जवाब पूरा न किया। पर निशान साफ़ हो गया — गैंग के पीछे कुछ बड़ी किस्म की मंडली या दबाव भी हो सकता था; कोई फंडर या बड़ा साथी जिसने उन्हें बड़े ऑपरेशन के लिए उकसाया हो।
पुलिस ने देखना शुरू किया कि गैंग के लोग किन लोगों से जुड़े थे — बाइक सप्लायर्स, गाराज़ मालिक, और उन नामों की भी जांच हुई जिनके पास नकद ट्रांज़ैक्शंस दिखाई देते। कुछ ट्रांक्स में छोटे हथियार, नकदी और चेन रखने के संकेत मिले। आसपास के कुछ छोटे गैरेजों में जांच की गयी, जहां हर अब और तब केटीएम पर मॉडिफिकेशन दिखाई दिए।
एसपी गोयल ने कहा, “यह सिर्फ छोटी-मोटी चोरियां नहीं हैं। यह एक नेटवर्क है — युवा ऑपरेटर, सप्लाई चैन, और संभावित फंडर। हमें पीछे की कड़ियां ढूंढनी होंगी।”
इंटेल-डेटा ने एक और रोशनी दी — एक व्यक्ति का आवागमन जिसको गैंग के लोग ‘मम्मा’ कहकर बुलाते थे; वह न सिर्फ फंड देता बल्कि रणनीति भी बताता था। अब टीम की जांच और भी व्यापक हुई — बैंकों के अकाउंट, मोबाइल लोकेशन रिकॉर्ड और शहर के बाहर के कनेक्शन्स तक पहुंचना पड़ा।
जब गिरफ्तारी की खबरें आई, तो शहर ने राहत की सांस ली। पर पुलिस के भीतर एक अलग तरह की बेचैनी थी। नाबालिग के गलत रस्ते पर जाने की वजहों ने थाने के कुछ सदस्यों के मन में सवाल उपस्थित किये — अगर समाज कुछ जगहों पर उसकी सहानुभूति कम करता, तो वह इतनी आसानी में गिर ही न पाता? क्या कानून का हाथ दर्द को कम कर सकता है, या सिस्टम में सुधार की ज़रूरत है?
टीम ने फैसला किया कि कानूनी प्रक्रिया के साथ-साथ सामाजिक सहायता भी सुनिश्चित की जाएगी — नाबालिग के लिए पुनर्वास, परिवार के आर्थिक हालात पर जांच और स्थानीय NGO से समन्वय।
एसपी गोयल ने अपनी टीम को इकट्ठा किया और कहा, “यह़ जीत है, पर हमारी पाठशाला अभी जारी है। जो बच्चे गलती से इस राह पर आये हैं, उन्हें लौटना होगा। और जो लोग क्रिमिनल जाल बुन रहे हैं, उनका पर्दाफाश जारी रहेगा।”
राजेन्द्र ने खामोशी से कहा, “हम एक-एक कड़ी खोलेंगे, सर। और जो भी मिलेगा, कानून के पूरे दायरे में रखा जाएगा।”
उदयपुर की सुबह वापस आई। बाज़ारों की हलचल, मंदिरों की घंटियों की आवाज़ें और तालाब की ठंडी हवा ने शहर को बहाल किया। पर शहर के कुछ कोनों में अब भी सवाल थे — किस तरह समाज की कमजोर कड़ियां अपराधी हाथों में खेल बन जाती हैं; कैसे युवा मजबूरियां उन्हें अपराध के दलदल में धकेल देती हैं; और पुलिस का दायित्व सिर्फ पकड़ना नहीं, बल्कि रोकथाम और पुनर्स्थापना भी है।
टारगेट टीम की पकड़ ने एक गैंग को रोका और एक बड़ी डकैती को रोका — पर सबसे बड़ा असर शायद लोगों के दिलों में लौट आया आत्मविश्वास था। महिलाएं फिर से चैन पहनकर घर से जुड़ गयीं, दुकानदारों ने शोरूम के बाहर खड़े होकर साँस ली, और बच्चों ने सड़कों पर खेलने की हिम्मत जतायी।
और कहीं एक छोटा सा लड़का, जो कभी किसी सड़क के किनारे खड़ा होकर दुनिया का सामना करने की हिम्मत नहीं रखता था, अब शायद किसी पुनर्वास केंद्र में सीख रहा होगा कि किस तरह अपना जीवन फिर से बनाये — कोई सिलाई, कोई काम, कोई नई शुरुआत।
कहां तक इस कहानी ने किसी अन्याय का अंत किया— यह कहना मुश्किल है। पर इतना तय है कि अब शहर का हिरणमगरी क्षेत्र एक बार फिर अपने पैरों पर खड़ा हुआ — पुलिस की सावधानी और कुछ हिम्मतों की वजह से। और पावर बाइक की गड़गड़ाहट अब भी कभी-कभी सुनाई देती है, मगर इस बार वो आवाज़ शहर की सतर्कता का हिस्सा बन चुकी है, डर का नहीं।
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