बिहार विधानसभा चुनाव 2025: एग्जिट पोल का विश्लेषण

17 एजेंसियों के पोल ऑफ पोल्स में NDA को स्पष्ट बढ़त, महागठबंधन पिछड़ता; PK की जन सुराज उम्मीदों पर खरी नहीं

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के एग्जिट पोल एक स्पष्ट संकेत दे रहे हैं—राज्य में इस बार मुकाबला एकतरफा दिख रहा है और एनडीए गठबंधन अनुमानित रूप से मजबूत स्थिति में है। दो चरणों में हुए मतदान और उच्च वोटिंग प्रतिशत के बावजूद महागठबंधन अपने पुराने प्रदर्शन को दोहराता हुआ नहीं दिख रहा है। दूसरी ओर, प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी, जिसने पहली बार चुनावी अखाड़े में कदम रखा था, शुरुआती प्रभाव पैदा नहीं कर पाई है।

एग्जिट पोल्स के संयुक्त आकलन, यानी पोल ऑफ पोल्स, में एनडीए को 154 सीटें मिलने का अनुमान है। महागठबंधन को लगभग 83 सीटें मिल सकती हैं, जबकि अन्य दलों के पास केवल 5 सीटें आने की संभावना जताई गई है। जन सुराज को 3 से 5 सीटों का अनुमान, इसे सीमित प्रभाव वाला खिलाड़ी साबित करता है।

यह अनुमान पिछले चुनावों की तुलना में काफी बड़ा बदलाव दिखाता है। 2020 के चुनाव में एनडीए ने 125 सीटें जीती थीं, जबकि इस बार उसे करीब 29 अतिरिक्त सीटें मिलती दिखाई दे रही हैं। इसके उलट महागठबंधन, जो पिछली बार 110 सीटें लाया था, इस बार लगभग 27 सीटें खोता हुआ प्रतीत होता है। यह आंकड़ा यह भी बताता है कि बदलाव का मूड यदि था भी, तो वह विपक्ष के पक्ष में नहीं गया।


पार्टीवार प्रदर्शन का संकेत : भाजपा को बढ़त, JDU स्थिर, RJD कमजोर

दैनिक भास्कर रिपोर्टर्स पोल यह बताता है कि भाजपा सबसे बड़ी लाभार्थी के रूप में उभरती दिख रही है। उसे 72 से 82 सीटों का अनुमान है, जबकि जेडीयू को 59 से 68 सीटें मिल सकती हैं। दोनों मिलकर एनडीए की रीढ़ बनते हैं। एलजेपी और हम जैसे छोटे साथियों को क्रमशः 4–5 और 5 सीटें मिलने की संभावना बताई गई है।

महागठबंधन के हिस्से में आने वाली सीटें इस बार स्पष्ट रूप से घट रही हैं। आरजेडी को 51 से 63 सीटें, कांग्रेस को 12 से 15 सीटें और वामदलों में सीपीआई (ML) को 6 से 9 सीटें मिल सकती हैं। यह पैटर्न दिखाता है कि विपक्ष के मुख्य घटक, खासकर आरजेडी, अपने पारंपरिक वोटबेस को समेकित नहीं कर पाए या फिर एनडीए का गठबंधन और उसका चुनावी ढांचा अधिक मजबूत साबित हुआ।

भाजपा की बढ़त यह दर्शाती है कि पार्टी लगातार अपनी संगठनात्मक मजबूती और मतदाता सुविधा केंद्रित अभियानों से लाभ उठा रही है। जेडीयू का प्रदर्शन बताता है कि नीतीश कुमार की ग्रामीण और महिला मतदाताओं में पकड़ अभी भी पर्याप्त रूप से कायम है। आरजेडी के कमज़ोर होते अनुमान इस ओर संकेत करते हैं कि जातीय समीकरणों का प्रभाव इस बार सीमित हुआ है और युवा तथा शहरी वोटरों का झुकाव कुछ अलग दिशा में गया है।


जन सुराज : प्रशांत किशोर का पहला चुनावी परीक्षण और सीमित सफलता

प्रशांत किशोर राजनीति में रणनीतिकार की छवि से बाहर निकलकर एक जन-आंदोलन आधारित पार्टी बनाने का दावा कर रहे थे। परंतु एग्जिट पोल बताता है कि जन सुराज का प्रभाव इस चुनाव में सीमित रहा। 3 से 5 सीटों का अनुमान यह साफ करता है कि पार्टी अभी ग्रामीण संरचना, पन्ना-प्रमुख जैसे तंत्र और मजबूत स्थानीय लीडरशिप के अभाव में बड़ी छलांग नहीं लगा सकी।

प्रशांत किशोर के लिए यह परिणाम एक संकेत है कि संगठनात्मक विस्तार और लंबे चुनावी अनुभव के बिना केवल वैकल्पिक राजनीति या जन संवाद आधारित मॉडल तत्काल परिणाम नहीं ला सकता। हालांकि, यह शुरुआत है, और यदि पार्टी इसे सीखने की प्रक्रिया माने, तो अगले कुछ वर्षों में उसका प्रभाव बढ़ भी सकता है।


एग्जिट पोल की विश्वसनीयता पर प्रश्न: बिहार ने पहले भी पोल्स को गलत साबित किया है

एग्जिट पोल पर भरोसा करना बिहार के राजनीतिक इतिहास में आसान नहीं रहा है।
2015 के चुनाव में ज्यादातर एग्जिट पोल्स ने एनडीए को बढ़त दी थी, लेकिन नतीजों में महागठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला।
2020 में उल्टा हुआ—पोल्स ने महागठबंधन की जीत का अनुमान लगाया, जबकि एनडीए ने 125 सीटें जीतकर सरकार बनाई।

इस इतिहास को देखते हुए यह सवाल उठता है कि क्या 2025 में भी एग्जिट पोल गलत साबित हो सकते हैं?
यह संभावना पूरी तरह खत्म नहीं होती। बिहार में जातीय समीकरण, महिला मतदाताओं का शांत वोट और स्थानीय मुद्दे अक्सर अंतिम क्षणों में चुनाव के परिणामों को प्रभावित करते हैं। ग्रामीण इलाकों में सैंपलिंग की सीमाएँ भी पोल्स को प्रभावित करती हैं।

फिर भी इस बार एग्जिट पोल्स की संख्या बड़ी है और सभी सर्वे संस्थान लगभग एक ही दिशा में इशारा कर रहे हैं। यह सामूहिक रुझान यह संकेत देता है कि मतदान के दौरान एनडीए के पक्ष में माहौल अधिक स्थिर रहा।


मतदान प्रतिशत का विश्लेषण : ऊंची वोटिंग का अर्थ बदलाव नहीं, बल्कि उत्साह

दो चरणों में हुए चुनाव में पहला चरण 65 प्रतिशत और दूसरा चरण 68.5 प्रतिशत वोटिंग के आंकड़े दिखाता है कि मतदाताओं में उत्साह इस बार अधिक था। सामान्यतः उच्च मतदान को बदलाव का संकेत माना जाता है, लेकिन बिहार के चुनावी समाजशास्त्र में यह सीधे-सीधे सत्ता परिवर्तन की गारंटी नहीं होता।

इस बार ऊँचे मतदान से अपेक्षित फायदा विपक्ष को नहीं मिलता दिख रहा है। यह दर्शाता है कि एनडीए का चुनावी प्रबंधन, बूथ लेवल संरचना और वंचित समूहों तक पहुँच का प्रयास अधिक प्रभावी सिद्ध हुआ। इसी कारण उच्च मतदान भी महागठबंधन के पक्ष में नहीं जा पाया।

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