फोटो : कमल कुमावत

उदयपुर। गणेश चतुर्थी का पर्व इस बार भी पूरे देश में उल्लास और आस्था का संगम लेकर आया है। घर-घर बप्पा की स्थापना से लेकर भव्य पंडालों की सजावट तक हर कोना गणेशमय दिखाई देता है। मुंबई में जहां ‘लालबाग का राजा’ की भव्यता और आस्था का जलवा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मशहूर है, वहीं उदयपुर भी अब पीछे नहीं है। शहर में बापूबाजार स्थित ‘उदयपुर चा राजा’ और धानमंडी क्षेत्र का ‘मन्नत का राजा’ लोगों के आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं।
बापूबाजार में बप्पा का वैभव
बापूबाजार के ‘उदयपुर चा राजा’ पंडाल में प्रवेश करते ही भक्तों को एक अलग ही अनुभूति होती है। रंग-बिरंगी रोशनी, फूलों की सजावट और ऊँचे-ऊँचे स्वागत द्वार वातावरण को भक्ति और उत्साह से भर देते हैं। पंडाल को सजाने और तैयार करने में वैभव अग्रवाल, जय, रौनक, संदीप, मोदित, यश, जैक्की, घनश्याम, कपिल मोहित, आकाश, दशरथ, विशाल, मनीष समेत मंडल के सभी कार्यकर्ताओं ने महीनों तक मेहनत की। नतीजा यह रहा कि उद्घाटन के साथ ही यहां भक्तों का तांता लग गया।

धानमंडी में ‘मन्नत का राजा’ की अनोखी झलक
धानमंडी क्षेत्र का ‘मन्नत का राजा’ इस बार अपनी अनूठी छवि के लिए सुर्खियों में है। रात 8.30 बजे जब प्रथम दर्शन शुरू हुए, तो ढोल-नगाड़ों और नासिक ढोल की गूंज ने पूरे इलाके को जीवंत कर दिया। मंडल के संचालक विशाल जैन के अनुसार, इस बार बप्पा की प्रतिमा विशेष है—16 भुजाओं और तीन देवियों के स्वरूप के साथ। राजस्थान में इस तरह की मूर्ति पहली बार देखने को मिली।
प्रारंभिक दर्शन के दौरान फायर शो का भी आयोजन किया गया, जिसने श्रद्धालुओं को रोमांचित कर दिया। वहीं 51 किलो लड्डू का भोग अर्पित कर भक्तों ने बप्पा का स्वागत किया। भीड़ इतनी अधिक रही कि व्यवस्था बनाए रखने के लिए स्वयंसेवक लगातार सक्रिय दिखे।

भक्तिमय हुआ माहौल
पूरे उदयपुर शहर में गणपति बप्पा मोरया के जयकारे गूंजते रहे। दोनों पंडालों की भव्यता और साज-सज्जा ने हर आने वाले भक्त को आकर्षित किया। श्रद्धालु सुबह से रात तक दर्शन के लिए पंक्तिबद्ध होकर अपनी बारी का इंतज़ार करते रहे। बच्चों, महिलाओं और बुज़ुर्गों—सबमें गजब का उत्साह देखने को मिला।
मुंबई बनाम उदयपुर: बढ़ती परंपरा
जहां मुंबई का लालबाग का राजा हर साल लाखों भक्तों को आकर्षित करता है और अंतरराष्ट्रीय पहचान बना चुका है, वहीं उदयपुर के ‘उदयपुर चा राजा’ और ‘मन्नत का राजा’ अब धीरे-धीरे अपनी अलग पहचान गढ़ रहे हैं। स्थानीय स्तर पर यह आयोजन अब सिर्फ धार्मिक आस्था का प्रतीक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक मेल-मिलाप का भी केंद्र बन चुके हैं।



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