धर्म से ऊपर इंसानियत : जब पिता के शव के साथ भटकते बच्चों की मदद को आगे आए स्थानीय मुस्लिम युवा

महराजगंज (उत्तर प्रदेश)। रात का सन्नाटा था। नौतनवां कस्बे की गलियों में एक ठेला खड़ा था, जिस पर 40 वर्षीय लवकुमार का शव पड़ा था। ठेले के पास खड़े तीन बच्चे—14 साल का बेटा, 11 साल का दूसरा बेटा और 9 साल की बेटी—अपने पिता की निस्पंद देह को देखकर रो रहे थे। उनके आंसुओं में भूख, ग़रीबी और बेबसी एक साथ बह रही थी। मोहल्ले के लोग आते-जाते रहे, लेकिन मदद के नाम पर किसी ने हाथ नहीं बढ़ाया।

बच्चों ने रिश्तेदारों से गुहार लगाई, मोहल्लेवालों से विनती की, यहां तक कि शव को क़ब्रिस्तान तक ले गए। मगर वहां भी उन्हें लौटा दिया गया, क्योंकि मृतक हिंदू थे। श्मशान घाट तक पहुंचने के लिए पैसे और लकड़ी की ज़रूरत थी, जो उनके पास नहीं थी। पिता का शव ठेले पर घंटों पड़ा रहा और बच्चे चौराहों पर मदद के लिए भटकते रहे।

“दो दिन से मदद मांग रहे थे, कोई आगे नहीं आया”

लवकुमार का बड़ा बेटा बताता है—“हमारे पास पैसे नहीं थे। हम शव को मानवाघाट लेकर गए तो हमें वहां से कब्रिस्तान भेज दिया गया। लेकिन वहां भी मना कर दिया गया। हम चकवा चौकी के पास घंटों खड़े होकर मदद मांगते रहे। लोग देखते थे, लेकिन कोई नहीं रुका। कई लोग पास आकर चले गए, जैसे हमारे पिता की लाश सिर्फ़ हमारे लिए थी, उनके लिए नहीं।”

इस दौरान शव की हालत भी बिगड़ती जा रही थी। कई घंटे तक ठेले पर पड़े-पड़े लाश फूल गई थी और दुर्गंध उठने लगी थी। बच्चे हिम्मत टूटने के बाद राहगीरों से पैसे मांगकर लकड़ी जुटाने की कोशिश करने लगे।

इंसानियत की मिसाल : राशिद और वारिस क़ुरैशी

इसी दौरान स्थानीय लोगों ने वार्ड सदस्य राशिद क़ुरैशी को सूचना दी।
राशिद बताते हैं—“सोमवार रात करीब सात बजे फोन आया कि छपवा तिराहे पर एक शव पड़ा है। बच्चे रो रहे हैं। लेकिन कोई मदद नहीं कर रहा। मैं मौके पर पहुंचा तो देखा कि लाश बदहाल हालत में पड़ी थी और लोग पास भी नहीं जाना चाहते थे। परिवार ने बताया कि दो दिन से उन्हें कहीं से मदद नहीं मिल रही है।”

राशिद ने तुरंत लकड़ी का इंतज़ाम किया। अपने रिश्तेदार वारिस क़ुरैशी और अन्य परिवारजनों के साथ वे रात 12 बजे तक श्मशान में खड़े रहे। हिंदू रीति-रिवाजों से पूरे सम्मान के साथ लवकुमार का अंतिम संस्कार करवाया।

राशिद कहते हैं—“धर्म से ऊपर इंसानियत है। जब बच्चे अपने पिता की लाश के साथ खड़े होकर मदद मांग रहे हों, तो चुप रहना गुनाह है। लोग मज़हब देखकर दूर हट रहे थे, लेकिन हमने इंसान देखकर मदद की।”

यह घटना मीडिया में आने के बाद प्रशासन हरकत में आया। उपजिलाधिकारी नवीन कुमार बच्चों से मिलने पहुंचे और कहा—“बच्चे अनाथ हो गए हैं। उन्हें बाल सेवा योजना में शामिल कर दिया गया है। बैंक खाता खुलते ही प्रत्येक बच्चे को पांच हज़ार रुपये प्रतिमाह की सहायता दी जाएगी। अब तक वे स्कूल भी नहीं जा रहे थे, लेकिन प्रशासन उनकी शिक्षा की व्यवस्था करेगा।”

तत्काल आर्थिक सहायता और राशन मुहैया कराने के बाद प्रशासन ने दावा किया कि बच्चों की सुरक्षा और जीवनयापन की ज़िम्मेदारी सरकार उठाएगी। हालांकि उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि घटना की जानकारी समय पर नहीं मिल पाई, इसीलिए मदद देर से हो सकी।

समाज की चुप्पी और एक सवाल

इस पूरे घटनाक्रम ने समाज की चुप्पी पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं। क्यों रिश्तेदार और पड़ोसी, जो हर रोज़ बच्चों और लवकुमार को देखते थे, इस कठिन घड़ी में पीछे हट गए?

क्यों अंतिम संस्कार जैसे बुनियादी मानवीय कर्तव्य में धर्म की दीवारें आड़े आईं?

क्यों प्रशासन तब तक मौन रहा जब तक कि यह खबर मीडिया तक नहीं पहुंच गई?

बच्चों की मासूम आंखों ने शायद इंसानियत का असली चेहरा देख लिया है—जहां मज़हब से ज़्यादा मायने इंसानियत रखती है।

ग़रीबी और बेबसी की कहानी

लवकुमार नौतनवां में अकेले रहते थे। पत्नी की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी। उनके बच्चे दादी के साथ रहते थे। कई दिनों से बीमार रहने के बाद उनका निधन हुआ। लेकिन ग़रीबी इतनी गहरी थी कि अंतिम संस्कार तक के पैसे परिवार के पास नहीं थे। यही कारण था कि शव ठेले पर घंटों पड़ा रहा और बच्चे राहगीरों से मदद मांगते रहे।

यह घटना बताती है कि ग़रीबी सिर्फ़ जीते-जागते इंसान को ही नहीं, बल्कि मरने के बाद भी उसकी गरिमा छीन लेती है।

इंसानियत की जीत

कठिन परिस्थितियों के बीच जब पूरा समाज चुप था, तब दो लोग—राशिद और वारिस क़ुरैशी—ने यह दिखा दिया कि मज़हब से ऊपर इंसानियत होती है। उन्होंने बच्चों के आंसू पोंछे और उनके पिता को सम्मानजनक विदाई दी।

यह घटना आज के दौर में एक बड़ा सबक छोड़ जाती है—कि इंसानियत अब भी ज़िंदा है, कि समाज की चुप्पी खतरनाक है, और यह कि “धर्म” की दीवारें टूट सकती हैं, अगर कोई एक इंसान हिम्मत कर ले।

स्रोत : बीबीसी

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