उदयपुर। राजनीति कभी खाली मैदान में नहीं खेली जाती — वह हमेशा किसी संस्थान, व्यक्ति या जनभावना के इर्द-गिर्द अपना दायरा बनाती है। उदयपुर में इन दिनों वही दायरा उदयपुर विकास प्राधिकरण (यूडीए) और उसके आयुक्त आईएएस राहुल जैन के नाम से रेखांकित हो रहा है। शहर की सियासत में यूडीए अब केवल विकास की संस्था नहीं, बल्कि राजनीतिक विमर्श का अखाड़ा बन चुका है, जहां प्रशासनिक कार्रवाई और राजनीतिक प्रतिष्ठा आमने-सामने खड़ी हैं।
बीजेपी के भीतर असहजता : अपनी ही सरकार के अधिकारियों पर सवाल
जब आरके सर्किल क्षेत्र में स्थित दुकानों को यूडीए ने सील किया, तो मामला महज़ अतिक्रमण का नहीं रहा। यह कदम अचानक बीजेपी की साख और जनसंपर्क के समीकरणों से जुड़ गया।
वरिष्ठ भाजपा नेता मांगीलाल जोशी ने सार्वजनिक रूप से सवाल उठाए और जिलाध्यक्ष गजपाल सिंह व विधायक ताराचंद जैन से बातचीत कर व्यापारियों को राहत दिलाने की मांग की। जोशी का यह पत्र भीतर ही भीतर पार्टी की बेचैनी को उजागर करता है — यह बेचैनी उस असमंजस की, जब सरकार भी अपनी और नाराज जनता भी अपनी होती है।
व्यापारी बनाम प्रशासन : नाराज़ी और नैतिक समर्थन का दोहरा चेहरा
त्योहारों के मौसम में की गई इस कार्रवाई ने व्यापारिक तबके में असंतोष की लहर पैदा कर दी है। दुकानों के सील होने से आर्थिक नुकसान तो हुआ ही, साथ ही व्यापारियों में यह संदेश भी गया कि सरकार का स्थानीय प्रशासन संवेदनशीलता से अधिक कठोरता दिखा रहा है।
लेकिन समाज का एक हिस्सा ऐसा भी है जो इस कार्रवाई को “जरूरी सुधार” की तरह देख रहा है। उनका मानना है कि शहर के सौंदर्य और नियमों की रक्षा के लिए “कुछ असुविधा” सहनी पड़ती है।
यानी उदयपुर इस समय दो भावनाओं के बीच बँटा शहर है — एक तरफ आजीविका की चिंता, दूसरी ओर व्यवस्था की उम्मीद।
सत्ताधारी वर्ग और ज़मीन का समीकरण
इस पूरे प्रकरण का एक और पहलू राजनीतिक है, और शायद सबसे गूढ़ भी। शहर में यह चर्चा आम है कि सत्ताधारी दल से जुड़े कई लोग भूमि व्यवसाय से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं। ऐसे में जब यूडीए किसी अतिक्रमण या अनियमित निर्माण पर कार्रवाई करता है, तो सवाल यह उठता है कि क्या निर्णय प्रशासनिक हैं या राजनीतिक दबाव से प्रभावित?
यूडीए की ईमानदारी पर भी अब चर्चाओं की परतें चढ़ने लगी हैं — कुछ इसे “नियमप्रिय संस्था” मानते हैं तो कुछ इसे “चयनात्मक सख़्ती” का प्रतीक बताते हैं।
अधिकारियों के व्यवहार पर बढ़ता असंतोष
शहर के सामाजिक हलकों में यह भावना बढ़ रही है कि कुछ प्रशासनिक अधिकारी जनसंवाद की कमी से ग्रसित हैं। “सुनवाई” और “समझ” के बीच जो दूरी बनती जा रही है, वही नाराज़गी का सबसे बड़ा कारण है।
राहुल जैन जैसे युवा आईएएस अधिकारियों की कार्यशैली को कुछ लोग “निर्भीक” कहते हैं तो कुछ “संवेदनहीन” बताकर आलोचना करते हैं। यह वही द्वंद्व है जिसमें विकास के नाम पर जनता से जुड़ाव कहीं न कहीं भावनात्मक स्तर पर टूटता नज़र आता है।
राजनीतिक संदेश और जनभावना का टकराव
बीजेपी के लिए यह स्थिति दोधारी तलवार जैसी है। एक ओर उसे अपनी सरकार की नीतियों और प्रशासनिक अनुशासन की रक्षा करनी है, दूसरी ओर वही कार्रवाई उसके मतदाता वर्ग — व्यापारियों और छोटे उद्यमियों — को नाराज़ कर रही है।
ऐसे में पार्टी के भीतर एक वर्ग यह मानता है कि “जनता के भरोसे से बनी सरकार को जनता की भावनाओं से ऊपर नहीं रखना चाहिए।” जबकि दूसरा पक्ष कहता है कि “कानून से ऊपर कोई नहीं।”
यह टकराव दरअसल राजस्थान की राजनीति के उस मूल चरित्र को उजागर करता है जहां विकास और जनभावना हमेशा आमने-सामने खड़े मिलते हैं।
त्योहार की राजनीति से प्रशासन की राजनीति तक
कुछ ही सप्ताह पहले दीपावली और दशहरा मेले के आयोजन स्थलों को लेकर हुई राजनीतिक खींचतान ने माहौल गर्माया था। पर जैसे ही वह विवाद ठंडा पड़ा, यूडीए के फैसले नई बहस का केंद्र बन गए। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि “उदयपुर में बीजेपी की अगली परीक्षा प्रशासनिक निर्णयों की जनस्वीकृति से तय होगी।” पार्टी का लोकल नेतृत्व अब यह सोचने को मजबूर है कि क्या अधिकारी और जनता के बीच सेतु बनने की जगह पार्टी खुद दीवार बन रही है?
सामाजिक स्तर पर विश्वास की परीक्षा
उदयपुर जैसे सांस्कृतिक और पर्यटन प्रधान शहर में प्रशासनिक कार्रवाई केवल कानूनी घटना नहीं होती, वह सामाजिक भावनाओं और स्थानीय सम्मान से भी जुड़ जाती है। व्यापारी वर्ग यहां सिर्फ आर्थिक इकाई नहीं है, बल्कि सामाजिक संरचना का स्थायी स्तंभ है। ऐसे में जब उस स्तंभ को चोट लगती है, तो शहर के मनोविज्ञान में भी दरारें आती हैं।
यही कारण है कि यूडीए की कार्रवाई का असर सिर्फ दुकानों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उसने जनता और शासन के बीच के भरोसे को भी हल्का-सा हिला दिया है।
उदयपुर का यह प्रकरण सिर्फ प्रशासनिक नहीं, राजनीतिक प्रतीक है
यूडीए की कार्रवाई और उस पर बीजेपी की आंतरिक प्रतिक्रियाएं दिखाती हैं कि विकास और राजनीति का फासला अब बेहद नाज़ुक हो गया है।
आईएएस राहुल जैन की भूमिका यहां एक अधिकारी से कहीं बड़ी बन गई है — वे अब उस “संस्थागत चेहरे” के प्रतीक हैं जिसके ज़रिए जनता सरकार को महसूस करती है।
उदयपुर में हो रही यह हलचल शायद यही संदेश दे रही है कि आने वाले समय में सत्ता की असली कसौटी प्रशासनिक फैसलों से ज़्यादा, उनके सामाजिक असर पर होगी।
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