उदयपुर। शिल्पग्राम के दर्पण सभागार में रविवार को पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, उदयपुर द्वारा आयोजित मासिक नाट्य संध्या ‘रंगशाला’ में ‘ऐसो चतुर सुजान’ नाटक का मंचन हुआ।
पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, उदयपुर के निदेशक फुरकान खान ने बताया कि माह के प्रथम रविवार को आयोजित होने वाले मासिक नाट्य संध्या रंगशाला के तहत कल्पना संगीत एवं थियेटर संस्थान बीकानेर द्वारा संगीतमयी राजस्थान लोक नाटक ‘ऐसो चतुर सुजान’ नाटक का मंचन किया गया। दर्शकों ने इस नाटक को बहुत सराहा। इस नाटक के लेखक हरीश बी. शर्मा एवं निर्देशक विपिन पुरोहित है। इस नाटक में 22 कलाकारों ने भाग लिया।
इस अवसर पर केन्द्र के कार्यक्रम अधिकारी पवन अमरावत, पूर्व कार्यक्रम अधिकारी विलास जानवे एवं राकेश शर्मा वरिष्ठ छाया चित्रकार ने कलाकारों का अभिनन्दन किया। कार्यक्रम का संचालन दुर्गेश चांदवानी ने किया। इस अवसर पर केन्द्र के अधिकारी एवं कर्मचारी उपस्थित थे।
‘ऐसो चतुर सुजान’ नाटक की देश, काल और परिस्थिति सामंती है, लेकिन इस नाटक को अगर आज का नाटक कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है, जिसमें एक ऐसे नायक की जरूरत जताई गई है, जिसके मन में अपने देश का हित सर्वाेच्च हो। यह नाटक व्यक्ति की प्रति नहीं बल्कि व्यवस्था के प्रति निष्ठा की बात करता है और सभी के लिए समान-व्यवहार की मांग करता है। इस नाटक में सामाजिक मुद्दों के प्रति जागरूकता और राष्ट्रीय एकता की जरूरत बताई गई है।
इस नाटक में एक अव्यवस्थित राज्य की कहानी है, जिसके सुधार के लिए एक महामंत्री का चुनाव होता है। राजा की इच्छा होती है कि कुशल और प्रतिभा संपन्न ऐसा व्यक्ति जो आम आदमी हो। ऐसा व्यक्ति जो बिना किसी सिफारिश के आए, वह महामंत्री बने।
राजा की इच्छा पूरी होती है, सुजान के रूप में महामंत्री मिलता है, लेकिन राज्य की नकारात्मक-शक्तियां सुजान की राह में रोड़े अटकाने का कार्य शुरू करती है, जिसे सुजान अपनी चतुराई से पार करता रहता है। और न सिर्फ राज्य की रक्षा करता है बल्कि अपनी सच्चाई को भी प्रमाणित करता है।
इस नाटक में दो-तीन कहानियां समानांतर चलती है, जिसमें एक सुजान की कहानी है, जिसे अपने अस्तित्व का भान है, लेकिन उसे अपने होने का घमंड नहीं है। दूसरी ओर राजा है, जो साजिशों से घिरा हुआ है, उसकी पत्नी भी उसकी नहीं है। और तीसरा पक्ष जनता का है, जिसके अपने-अपने सुख-दुख हैं। सुजान सबके लिए संजीवनी बनकर सामने आता है, लेकिन जब वह साजिशों से घिर जाता है तो सिवाय उसके सच के उसके साथ कोई नहीं होता। इसलिए कहा जाता है कि व्यक्ति को अपने सत्य से नहीं डिगना चाहिए।
यथार्थ और भावनाओं के संवेगों की उठापटक के बीच चलता यह नाटक अपनी लोक-शैली और संवादों की गति के चलते दर्शकों को बांधे रखता है। इस नाटक का जब-जब भी मंचन हुआ है, दर्शकों द्वारा सराहा गया है।
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