
बिहार विधानसभा चुनाव का प्रचार अब पूरी रफ़्तार पर है। मंचों पर भाषणों की गूंज, सड़कों पर पोस्टरों की भरमार और मतदाताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप की गूंज ने चुनावी माहौल को पूरी तरह गरमा दिया है। इस बार की सबसे बड़ी चर्चा कांग्रेस नेता राहुल गांधी की वापसी को लेकर है, जिन्होंने बुधवार को मुज़फ़्फ़रपुर से अपनी पहली चुनावी रैली की शुरुआत की। दूसरी ओर, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पहले से ही मैदान में सक्रिय हैं और उन्होंने दरभंगा, समस्तीपुर और बेगूसराय की रैलियों में विपक्ष को खुली चुनौती दी।
राहुल गांधी की चुनावी एंट्री: तीखे तेवर और सीधा हमला
राहुल गांधी की मुज़फ़्फ़रपुर की पहली रैली ने राजनीतिक हलचल बढ़ा दी। मंच से उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सीधे-सीधे निशाना साधते हुए कहा कि “उन्हें सिर्फ़ आपका वोट चाहिए। अगर आप कहें तो वे स्टेज पर डांस कर देंगे।” इस टिप्पणी ने माहौल में आग भर दी। राहुल ने आगे कहा, “चुनाव से पहले जो करवाना है करवा लो, क्योंकि चुनाव के बाद मोदी जी किसानों या मज़दूरों के साथ नहीं, बल्कि अंबानी की शादी में दिखेंगे।”
यह बयान न सिर्फ़ प्रधानमंत्री पर व्यक्तिगत हमला था, बल्कि यह मोदी सरकार की उस छवि पर भी चोट थी जो ‘गरीबों के मसीहा’ के रूप में गढ़ी गई है। राहुल गांधी ने अपने भाषण में बार-बार यह संदेश देने की कोशिश की कि मौजूदा सत्ता उद्योगपतियों के हितों के लिए काम कर रही है, जबकि आम नागरिक, किसान और मज़दूर उपेक्षित हैं।
उन्होंने बीजेपी पर “वोट चोरी” का आरोप लगाते हुए कहा कि महाराष्ट्र और हरियाणा में लोकतंत्र को “चोरी” किया गया और अब बिहार में भी ऐसी कोशिश हो रही है। राहुल गांधी ने दावा किया कि महागठबंधन की सरकार “हर जात, धर्म और वर्ग” की आवाज़ बनेगी। उन्होंने तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित कर यह संकेत दे दिया कि कांग्रेस बिहार में आरजेडी की नेतृत्व भूमिका को पूरी तरह स्वीकार कर रही है।
तेजस्वी यादव की रैली और नौकरियों का वादा
दरभंगा में राहुल गांधी के साथ मंच साझा करते हुए आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने युवाओं को ध्यान में रखते हुए बड़ा ऐलान किया — “सरकार बनने के 20 दिनों के अंदर हम एक क़ानून लाएंगे कि जिस परिवार में सरकारी नौकरी नहीं है, उस परिवार को एक नौकरी दी जाएगी।”
यह वादा निस्संदेह महागठबंधन की सबसे बड़ी चुनावी पेशकश है। लेकिन राजनीतिक दृष्टि से यह उतना ही जोखिमभरा भी है। बिहार जैसी आबादी वाले राज्य में सरकारी नौकरियों की सीमा तय है, ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह वादा आर्थिक और प्रशासनिक दृष्टि से संभव है। विपक्ष ने इसे “झूठ का पुलिंदा” कहा है, जबकि महागठबंधन इसे “समान अवसर और सामाजिक न्याय” की दिशा में कदम बता रहा है।
अमित शाह का पलटवार: ‘महाठगबंधन’ बनाम ‘जंगलराज’
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने राहुल गांधी और तेजस्वी यादव दोनों पर तीखा पलटवार किया। दरभंगा की रैली में उन्होंने कहा, “क्या यह महाठगबंधन बिहार का भला कर सकता है? बिहार का भला केवल नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी की जोड़ी ही कर सकती है।” शाह ने लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस दोनों को “भ्रष्टाचार के प्रतीक” के रूप में पेश करते हुए पुराने घोटालों — चारा घोटाला, लैंड फॉर जॉब स्कैम और यूपीए सरकार के 12 लाख करोड़ के कथित घोटालों — का उल्लेख किया।
शाह ने अपनी रैली में युवाओं को भी संबोधित करते हुए कहा कि बीजेपी ने 25 साल की युवा मैथिली ठाकुर को टिकट दिया है, जो किसी राजनीतिक परिवार से नहीं आतीं। उन्होंने सवाल उठाया — “क्या आरजेडी या कांग्रेस में बिना खानदान के कोई मौका पा सकता है?” यह टिप्पणी कांग्रेस और आरजेडी के वंशवाद पर निशाना थी और बीजेपी के “मेरिट आधारित राजनीति” के संदेश को मज़बूती देती है।
समस्तीपुर की रैली में शाह ने कहा कि “यह चुनाव किसी उम्मीदवार को मंत्री या मुख्यमंत्री बनाने का नहीं, बल्कि बिहार को जंगलराज से मुक्त कराने का चुनाव है।” उनका यह संदेश स्पष्ट था — एनडीए अपने अभियान को “विकास बनाम अराजकता” की रेखा पर खड़ा करना चाहता है।
योगी आदित्यनाथ और ओवैसी की एंट्री: ध्रुवीकरण की परतें
सीवान में योगी आदित्यनाथ ने आरजेडी उम्मीदवार ओसामा शहाब को “अपराधिक पृष्ठभूमि वाला व्यक्ति” बताते हुए हमला बोला और कहा कि “आरजेडी आज भी अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का विरोध करती है।” योगी के इस बयान से बीजेपी की रणनीति साफ़ झलकती है — वह सांस्कृतिक और धार्मिक भावनाओं को केंद्र में लाकर अपने पारंपरिक मतदाताओं को मजबूत करना चाहती है।
दूसरी ओर, असदुद्दीन ओवैसी ने किशनगंज में अपनी रैली में कहा कि उन्होंने महागठबंधन में शामिल होने की कोशिश की थी, लेकिन जगह नहीं मिली। उन्होंने कहा कि “अगर मल्लाह का बेटा उपमुख्यमंत्री बन सकता है तो मोहम्मद का बेटा मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकता।” यह बयान सीमांचल के मुस्लिम वोट बैंक में सीधा असर डालने वाला है। ओवैसी ने खुद को “अल्पसंख्यकों की असली आवाज़” के रूप में पेश किया, जबकि कांग्रेस और आरजेडी पर “मुसलमानों को सिर्फ़ वोट बैंक समझने” का आरोप लगाया।
राजनीतिक विश्लेषण : तीन ध्रुवों की सियासत
बिहार की सियासत इस बार तीन स्पष्ट ध्रुवों में बँटी दिख रही है — पहला, एनडीए जो “विकास और स्थिरता” के नारे पर टिका है; दूसरा, महागठबंधन जो “रोज़गार और सामाजिक न्याय” की बात कर रहा है; और तीसरा, ओवैसी का एआईएमआईएम जो “अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व” की राजनीति को धार दे रहा है।
राहुल गांधी की एंट्री से महागठबंधन को ऊर्जा तो मिली है, लेकिन उनके बयानों ने विवाद भी पैदा किया है। नरेंद्र मोदी पर उनकी व्यक्तिगत टिप्पणी बीजेपी के लिए नैतिक मुद्दा बन सकती है, जैसा कि प्रवक्ता प्रदीप भंडारी ने कहा — “राहुल गांधी ने लोकल गुंडे जैसी भाषा बोली।” दूसरी ओर, राहुल गांधी का भाषण कांग्रेस के उस पुराने तेवर की याद दिलाता है जब पार्टी खुलकर अमीर-गरीब के विभाजन को राजनीतिक मुद्दा बनाती थी।
अमित शाह की रैलियाँ बीजेपी के संगठित, अनुशासित और रणनीतिक प्रचार की झलक देती हैं। वे नीतीश कुमार के साथ “डबल इंजन सरकार” के संदेश को लगातार दोहरा रहे हैं, जबकि राहुल गांधी “बदलाव” की आवाज़ उठाने की कोशिश कर रहे हैं।
बिहार का यह चुनाव सिर्फ़ सत्ता परिवर्तन की लड़ाई नहीं है, बल्कि राजनीतिक विचारों के टकराव का मैदान भी बन गया है। राहुल गांधी जहां “सत्ता की सहानुभूति” के खिलाफ़ जन-भावना जगाने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं अमित शाह “स्थिरता और सुरक्षा” की कहानी सुना रहे हैं। तेजस्वी यादव युवाओं के लिए उम्मीद का चेहरा बनने की कोशिश में हैं, जबकि ओवैसी सीमांचल की राजनीति को नया स्वर देने की मुहिम चला रहे हैं।
अगले कुछ दिनों में जैसे-जैसे मतदान की तारीख़ नज़दीक आएगी, बयानबाज़ी और भी तीखी होगी। लेकिन इस चुनाव में सबसे बड़ा सवाल यही रहेगा — क्या बिहार की जनता “विकास” की राजनीति को चुनेगी या “बदलाव” की आवाज़ को?
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