अंजुमन चुनाव : जोहरान ममदानी की कामयाबी और हमारे नुमाइंदों के लिए एक सबक

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उदयपुर। उदयपुर में अंजुमन के चुनाव का माहौल है, और इसी सिलसिले में हमें एक नज़र न्यूयॉर्क की सियासत पर डालनी चाहिए—न सिर्फ़ इत्तेफाक से, बल्कि एक ख़ास वजह से। वह वजह हैं जोहरान ममदानी—एक 33 वर्षीय भारतीय-नस्ल के गुजराती मुसलमान नौजवान, जिन्होंने न्यूयॉर्क सिटी के मेयर पद के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी की प्राइमरी में एक तारीख़ी और गैर-मामूली फ़तह हासिल की है।

हैरत की बात यह है कि हिंदुस्तान की ज़मीन पर, जहाँ मीडिया हर दूसरे विदेशी मुसलमान के बयान को सुर्ख़ियों में बदल देता है, वहीं ममदानी की इस फ़तह पर ख़ामोशी तारी है। शायद इसलिए कि वह हिंदुस्तानी मुसलमान हैं—वह भी राजनीतिक तौर पर बेबाक और सामाजिक न्याय के हामी।

ममदानी का विज़न: सियासत नहीं, खिदमत

जोहरान ममदानी ने अपनी सियासी मुहिम को सिर्फ़ एक चुनावी दौड़ नहीं, बल्कि जमीनी तबक़े के हक़ में एक तहरीक में तब्दील कर दिया। उन्होंने न्यूयॉर्क जैसे विकसित शहर में भी रोटी, कपड़ा और मकान को बुनियादी मुद्दा बनाया।

उन्होंने वादा किया कि न्यूयॉर्क में फ़्री बस सेवा, सस्ता मकान और महँगाई पर लगाम उनके एजेंडे में सबसे ऊपर होंगे। ट्रैफ़िक जाम जैसे रोज़मर्रा के मुद्दों पर भी उन्होंने ज़बान खोली—जो अमूमन बड़े नेता नज़रअंदाज़ कर देते हैं। दिलचस्प बात यह रही कि उन्होंने हिंदी, उर्दू, फ़ारसी, अरबी और बांग्ला जैसी भाषाओं में अपनी बात रखी—हर ज़ुबान में, हर दिल तक पहुँचने की कोशिश की।

ध्रुवीकरण की सियासत का टूटना

जोहरान ममदानी ने वह कर दिखाया जो आज की राजनीति में न के बराबर होता है—उन्होंने धर्म, नस्ल और रंग की दीवारों को गिरा दिया।
उन्होंने वोटों का ध्रुवीकरण नहीं किया, बल्कि इंसानियत की बुनियाद पर समर्थन जुटाया। उनके प्रचार में न नफ़रत थी, न भय, सिर्फ़ अमन, बराबरी और इंसाफ़ का पैग़ाम था।

गुजरात से ग़ज़ा तक, इंसाफ़ की आवाज़

जोहरान ने अपने प्रचार में हिंदुस्तान के गुजरात दंगों का ज़िक्र किया, ग़ज़ा में हो रहे इज़राइली जुल्म के खिलाफ बेबाकी से आवाज़ उठाई और नेतन्याहू को “युद्ध अपराधी” कहा। उन्होंने यहां तक कहा कि अगर वे मेयर बने और नेतन्याहू न्यूयॉर्क आए, तो वह उसकी गिरफ्तारी का हुक्म देंगे।

इस रवैये की अहमियत तब और बढ़ जाती है जब यह मालूम हो कि ममदानी को न्यूयॉर्क के यहूदी समाज के कुछ हिस्सों का भी समर्थन हासिल है—यानि उन्होंने सच बोलने में सियासी जोखिम उठाने से गुरेज़ नहीं किया।

सोशल मीडिया पर क्रांति

जोहरान ममदानी ने अपने प्रचार में न सिर्फ़ ज़बानों की विविधता दिखाई, बल्कि संस्कृति और सिनेमा का भी बख़ूबी इस्तेमाल किया। उन्होंने हिंदी फ़िल्मों के दृश्य और संवादों को अपने प्रचार वीडियो में शामिल कर, देसी और प्रवासी वोटरों से भावनात्मक रिश्ता जोड़ा। वह लोगों के घरों के दरवाज़े पर दस्तक देते नज़र आए, सवाल पूछते, जवाब सुनते और दिल जीतते—बिना किसी लिपे-पुते भाषण के।

अंजुमन के नुमाइंदों के लिए पैग़ाम

अब सवाल यह है कि हम इस फ़तह से क्या सीख सकते हैं? उदयपुर में अंजुमन का चुनाव चाहे अलग स्तर का हो, मगर ममदानी का विज़न, उनकी रणनीति और अवाम से उनका ताल्लुक़—यह सब हमारे नुमाइंदों के लिए आईना है। क्या हमारे उम्मीदवार सोशल मीडिया पर ममदानी की तरह ईमानदारी, मेहनत और बहस के ज़रिये प्रचार कर रहे हैं?

क्या वे शहर के हर शख़्स को, चाहे वह किसी भी जाति या मज़हब से हो, बराबरी की निगाह से देख रहे हैं?

आख़िरी बात : ममदानी जैसा मिज़ाज चाहिए

जिस दिन हमारे यहाँ भी कोई नौजवान, किसी एक कौम नहीं बल्कि अपने शहर, अपने इंसानों के लिए खड़ा होगा—उस दिन मुमकिन है कि उदयपुर भी अपना जोहरान ममदानी पैदा कर दे।
मगर ऐसा तब होगा, जब हम सियासत को खिदमत समझें, और खिदमत को शोहरत नहीं, ज़िम्मेदारी मानें।

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