
उदयपुर की सरज़मीं पर बीसवीं सदी की शुरुआत में जब अंजुमन तालीमुल इस्लाम का बीज बोया गया था, तो उसका मक़सद महज़ एक इदारा खड़ा करना नहीं था — बल्कि वो एक तहरीक थी, एक जज़्बा था, जो इस बात पर यक़ीन रखता था कि तालीम ही तरक्क़ी का सबसे बड़ा ज़रिया है और इस्लाम का सबसे रौशन पैग़ाम।
बड़े मौलाना साहब का मिशन और उस दौर की रोशनी
मौलाना मुफ्ती जहीरुल हसन साहब का ज़िक्र करना यहां लाज़मी है। उन्होंने इस अंजुमन के ज़रिए न सिर्फ़ तालीम को आम किया, बल्कि लोगों में दीनी शऊर (धार्मिक चेतना) भी पैदा किया। उन्होंने हज़रत मोहम्मद के उस उसवाए हसना (आदर्श जीवन) की तालीम दी, जो इंसान को नफ़रत नहीं, अख़लाक़ और बराबरी का पैग़ाम देता है।
आज भी उस दौर के जो लोग हयात हैं, वो इस बात की तस्दीक़ करते हैं कि उस वक़्त अंजुमन एक रूहानी और इल्मी मरकज़ (शैक्षिक केंद्र) था।
वक़्त ने करवट ली… और अंजुमन ने रुख़ बदल लिया
लेकिन अफ़सोस कि वक़्त के साथ अंजुमन का रवैय्या बदल गया। सदाकत और मशवरे की बुनियाद पर खड़ी इस इदारे में अब मस्लहत, मफ़ादपरस्ती और इख़्तियार की भूख ने दस्तक दे दी। बीसवीं सदी के आखिर तक आते-आते यहां मसल्स पावर ने दस्तक दी — सीधा और परोक्ष रूप में।
तालीम और इस्लाह (सुधार) का मक़सद कहीं पीछे छूट गया। अब ये इदारा न कौमी बेदारी की आवाज़ रहा, न इल्मी सरमाया (शैक्षिक पूंजी) का गहवारा।
सफ में फर्क डालने वाला रवैय्या
इस्लाम ने तो कहा था —
“एक ही सफ में खड़े हो गए महमूदो अयाज़,
न कोई बंदा रहा न बंदा-नवाज़।”
मगर हक़ीक़त ये है कि आज अंजुमन में सफों में फर्क पैदा कर दिया गया है। जिनके पास इक्तिसादी कुव्वत (आर्थिक शक्ति) थी, उनके बच्चे नामी गिरामी स्कूलों में पढ़ने लगे। अंजुमन तो बस कमज़ोर तबक़े के लिए रह गया — वो भी एहसान की तरह नहीं, एक मजबूरी की तरह।
तालीम अब बराबरी का हक़ नहीं, सामाजिक दर्जे का आईना बन गई है।
तालीम में तब्दीली और कौम की नई तस्वीर
फिर भी, यह कहना ग़लत होगा कि अंधेरे ही अंधेरे हैं। ख़ांजीपीर और आसपास के इलाक़ों में पिछले कुछ सालों में बच्चों ने वो कमाल दिखाया है जो तारीफ़ के क़ाबिल है। 10वीं और 12वीं के नतीजों में 80 से 95 प्रतिशत तक अंक लाने वाले छात्र इस बात की शाहदत देते हैं कि अगर इरादा साफ़ हो तो रास्ते निकल ही आते हैं।
नीट, जेईई, यूपीएससी जैसी मुश्किल इम्तिहानों में शहर के मुस्लिम नौजवानों का कामीयाबी से सलेक्ट होना एक साफ़ पैग़ाम है कि अब अंजुमन को सिर्फ स्कूल चलाने की इदारा नहीं, सोच बदलने का मरकज़ बनना होगा।
अब अंजुमन को बदलनी होगी अपनी सोच, अपनी सियासत और अपना मक़सद
इस वक़्त जब नशाखोरी, बेरोज़गारी, अपराध, और सामाजिक टूटन बढ़ रही है — अंजुमन को चाहिए कि वो खुद को एक रहनुमा की तरह पेश करे। अगर वो वाक़ई “तालीमुल इस्लाम” के नाम को ज़िंदा रखना चाहता है, तो उसे ये काम करने होंगे:
1. नशे के खिलाफ जंग
हर मोहल्ले में नशे की लत ने नौजवानों को तबाही के रास्ते पर डाल दिया है। अंजुमन को चाहिए कि वो इस पर खुलकर आवाज़ बुलंद करे। शरअी, सामाजिक और क़ानूनी हदों में रहकर इस लानत के खिलाफ इल्म और अमल दोनों से लड़ाई लड़ी जाए।
2. ज़कात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता
इस्लाम में ज़कात सिर्फ एक इबादत नहीं, सामाजिक इंसाफ़ का ज़रिया है। अगर ज़कात को मुनज़्ज़म किया जाए, तो यतीमों, बेवाओं, माज़ूरों और तालीम चाहने वालों की मदद हो सकती है।
3. स्किल डेवलपमेंट को दें तरजीह
आज डिग्री से ज़्यादा ज़रूरत है हुनर की, माहिरीन की। अंजुमन को ऐसे कोर्सेज़, वर्कशॉप्स, और सेमिनार्स की तंज़ीम करनी चाहिए जो बच्चों को मौसिर फनून (उपयोगी कौशल) सिखा सके।
चुनाव: एक अमानत है, हुकूमत नहीं
अब जब अंजुमन में इंतिख़ाबात की बात हो रही है, तो ये जान लेना ज़रूरी है कि ये कोई तख़्त-ओ-ताज की लड़ाई नहीं है, बल्कि एक अमानत (विश्वास) है। जो भी उम्मीदवार सामने आए, उन्हें सिर्फ रुतबा नहीं, बल्कि एक विजन पेश करना होगा:
समाज की बुराइयों से कैसे लड़ेंगे?
नशे, बेरोजगारी, तालीमी गिरावट को कैसे रोकेंगे?
क्या वो हिकमत और सब्र से पेश आएंगे, या हर छोटी बात पर जुलूस और हंगामों का रास्ता अपनाएंगे?
याद रखिए, इस्लामी रवैय्या न तो अफरातफरी सिखाता है और न ही नफरत। इस्लाम का असल फलसफ़ा है — हिकमत, बराबरी, और मुशाविरत।
अंजुमन : सिर्फ मुसलमानों का नहीं, सबका इदारा बने
अब वक़्त है कि अंजुमन खुद को सिर्फ कौमी सरहदों तक महदूद न रखे। उसे मज़हबी डायलॉग, इंटरफेथ डिबेट्स, और साझा मंचों की तरफ कदम बढ़ाने होंगे। हर मज़हब, हर फिरके से ताल्लुक रखने वाले लोगों को बुलाया जाए — ताकि ग़लतफहमियां दूर हों, नफरत की दीवारें गिरें।
सेमिनार, मुशायरे, इल्मी मजलिसें हों
हर महीने या छह महीने में अंजुमन में इल्म पर, इस्लाम पर, समाज पर, कोई हाई-प्रोफाइल सेमिनार हो। नौजवान, उलेमा, समाजसेवी, और प्रोफेसर शामिल हों। इस्लाम पर सिर्फ मज़हबी नहीं, बल्कि अक़ली और तालीमी बहस हो।
इख़्तितामिया (निष्कर्ष)
अंजुमन तालीमुल इस्लाम सिर्फ एक नाम नहीं, एक अमल की पुकार है। अब वक़्त आ गया है कि अंजुमन फिर से उस रास्ते पर लौटे जहाँ बराबरी, इल्म, और अख़लाक़ी तालीम उसका शिनाख़्त थी।
वरना नाम में “तालीम” और “इस्लाम” लिखे रह जाएंगे — मगर असर और अमल ग़ायब हो जाएंगे।
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