उदयपुर वालों धर्मेंद्र को याद करना है, तो यूं कीजिए…

 

उदयपुर। कुछ लोग ज़िंदगी की राह पर ऐसे चलते हैं कि उनके कदमों की धूल भी शहरों और गाँवों की सांसों में बस जाती है। धर्मेंद्र उन्हीं में से एक थे—मिट्टी से उठकर सितारों तक पहुँचने वाले, पर मिट्टी की ख़ुशबू को कभी न छोड़ने वाले।

उदयपुर से उनका रिश्ता किसी पुराने लोकगीत की तरह था—धीमा, मधुर, और सदा जीवित। मेरा गांव मेरा देश की शूटिंग जब चीरवा गांव की ढलानों और पगडंडियों में चल रही थी, तब धर्मेंद्र सिर्फ़ एक अभिनेता नहीं थे, गाँव के हर आंगन का अपनापा थे। कहते हैं, उन दिनों चीरवा की हवा में सिनेमा और सादगी साथ-साथ बहते थे।

फिल्म की शूटिंग के बीच ही धर्मेंद्र ने सरकारी स्कूल में दो कक्षाओं का निर्माण करवाया था। यह कोई उद्घाटन-योग्य घोषणा नहीं थी, बस एक कर्म था—चुपचाप, जैसे कोई किसान बीज बोता है और आगे की बारिश पर छोड़ देता है। आज से 54 साल पहले किया वह छोटा-सा कार्य, गाँव के दिलों में आज भी बड़ा होकर खड़ा है।

निर्माता-निर्देशक राज खोसला ने गांव के तमाम युवाओं को फिल्म में काम दिया था। वे चेहरे, जो कभी कैमरे के सामने झिलमिलाए, अब कई नहीं रहे, पर चीरवा में मेरा गांव मेरा देश देखना आज भी पुराने दरवाज़े खोल देता है—जहां यादें अपने कदमों की आवाज़ लेकर लौट आती हैं।

फिल्म का बड़ा हिस्सा चीरवा और कैलाशपुरी के बीच सांस लेता है। विनोद खन्ना और आशा पारेख — दोनों उस दौर की चमक थे, पर इन गाँवों ने उन्हें अपनेपन की धूल से ढककर, घर के लोगों जैसा बना लिया था। गाँव वाले बताते हैं कि किसी की मृत्यु पर पूरे सम्मान से कई दिनों तक शूटिंग रोक दी गई थी। आज के समय में यह सुनना किसी जलपरि की कहानी जैसा लगता है, पर वही तो वह दौर था, जब फ़िल्में सिर्फ़ बनाई नहीं जाती थीं, जियी जाती थीं।

खाली समय में धर्मेंद्र और विनोद खन्ना चीरवा से कैलाशपुरी तक दौड़ लगाते थे—जैसे दो दोस्त नहीं, दो पहाड़ अपनी फुर्ती पर गर्व कर रहे हों। आशा पारेख की मुस्कुराहट गाँव की औरतों के बीच ऐसे घुल गई थी, जैसे कोई नदी चुपचाप खेतों को सींच ले।

गांव वालों के घरों में दाल-बाटी, मक्की की रोटी और मेवाड़ के पारंपरिक स्वादों ने इन कलाकारों को सिर्फ़ भोजन नहीं दिया, अपनापन भी दिया। उस दौर की ये यादें गाँव की बुज़ुर्ग आंखों में आज भी चमक उठती हैं। कई यूट्यूबर और ब्लॉगर चीरवा को आज भी वैसा दिखाते हैं जैसा वह आधी सदी पहले था—मानो वक़्त ने यहाँ ठहरकर साँस ली हो।

और सच कहें तो चीरवा की जुबान पर आज भी एक ही धुन गुनगुनाती है—
मेरा गांव… मेरा देश।

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