
पैराफेरी पट्टा आंदोलन में असली चेहरा उजागर
उदयपुर। निगम क्षेत्र हो या पैराफेरी इलाका, जमीनों से जुड़े मामलों में कुछ चुनिंदा नेताओं की असाधारण रुचि अब सवालों के घेरे में है। दिलचस्प बात यह है कि इनमें से कुछ पार्षद और पंच भी रहे हैं खुद को पत्रकार भी बताते हैं और जमीन से संबंधित खबरों को चुनिंदा तरीके से वायरल कर रहे हैं। इनमें वे भी हैं जो निगम क्षेत्र में फर्जी भूखंडों के मामले से कथित तौर पर जुड़े रहे हैं। सवाल यह है कि अगर कहीं वास्तव में गड़बड़ी है तो जांच पूरी होने दी जाए और उसके निष्कर्ष सार्वजनिक किए जाएं, फिर इस तरह की नेतागिरी और दबाव की राजनीति क्यों? प्रशासन को भी चाहिए कि ऐसे सक्रिय नेताओं से पूछताछ करे कि आखिर इन जमीन मामलों में उनका निजी हित क्या है।
मीडिया रिपोर्ट में प्रकाशित समाचारों के आधार पर : मामले की पृष्ठभूमि में उदयपुर की पैराफेरी पट्टा आंदोलन की सच्चाई धीरे-धीरे सामने आने लगी है। पैराफेरी में पट्टों को लेकर चल रहे आंदोलन के बीच पैराफेरी पंचायत जिला संघर्ष समिति में खुला दो-फाड़ हो गया है। एक ओर समिति के जिलाध्यक्ष मदन पंडित हैं तो दूसरी ओर संयोजक चंदन सिंह देवड़ा। दोनों एक-दूसरे पर गंभीर आरोप लगा रहे हैं।
मदन पंडित का आरोप है कि पट्टों के नाम पर वर्षों से एक सुनियोजित खेल खेला जा रहा है। उनका कहना है कि पिछले तीन-चार वर्षों में भूमाफियाओं ने बिनानाम जमीनों पर अवैध प्लानिंग काटकर लोगों को प्लॉट बेचे और अब उन्हीं अवैध प्लानिंग को वैध करवाने के लिए आंदोलन का सहारा लिया जा रहा है। पंडित का दावा है कि यह आंदोलन वास्तव में आम जनता के लिए नहीं, बल्कि भूमाफियाओं के हितों की पैरवी बनकर रह गया है।
वहीं संयोजक चंदन सिंह देवड़ा इन आरोपों को सिरे से खारिज करते हैं। देवड़ा का कहना है कि संघर्ष समिति का उद्देश्य केवल उन लोगों को पट्टे दिलवाना है जो लंबे समय से आबादी में रह रहे हैं। उनका दावा है कि समिति न तो खाली जमीन पर पट्टा चाहती है और न ही किसी तरह के अतिक्रमण को बढ़ावा देना चाहती है। देवड़ा का यह भी कहना है कि मदन पंडित पहले समिति के साथ थे, लेकिन बाद में निजी कारणों से अलग हो गए और अब निराधार आरोप लगा रहे हैं।
हालांकि हकीकत यह है कि 2022 के सरकारी आदेश के बाद पंचायतों को आबादी वाली जमीनें सौंपे जाने की प्रक्रिया शुरू हुई थी। इसी आदेश की आड़ में कई इलाकों में बिनानाम जमीनों पर अवैध प्लानिंग काटी गई, मकान बने और अब उन्हें वैध कराने का दबाव बनाया जा रहा है। यदि यूडीए इन क्षेत्रों का निष्पक्ष सर्वे कराए तो पिछले चार वर्षों में हुए नए निर्माण और अवैध कब्जों की सच्चाई खुद-ब-खुद सामने आ सकती है।
इस पूरे घटनाक्रम में राजनीतिक दखल भी साफ नजर आ रहा है। आंदोलन में एक राजनीतिक दल के नेता और कार्यकर्ता खासे सक्रिय हैं, जो विपक्ष में होने के कारण सरकार पर अधिकतम दबाव बनाना चाहते हैं। सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या यह आंदोलन वास्तव में पट्टों के लिए है या फिर राजनीतिक और जमीन माफिया गठजोड़ का हिस्सा बन चुका है।
संघर्ष समिति में फूट के बाद अब आंदोलन का भविष्य भी अनिश्चित नजर आ रहा है। यदि आम लोग यह समझ गए कि आंदोलन का मकसद भटक चुका है, तो संभव है कि वे इससे दूरी बना लें। ऐसे में प्रशासन की भूमिका सबसे अहम हो जाती है। जांच पूरी किए बिना दबाव में आकर फैसले लेना न केवल कानून के खिलाफ होगा, बल्कि इससे अवैध कब्जों और भूमाफियाओं को खुला संरक्षण मिलने का खतरा भी रहेगा।
अब सवाल साफ है—क्या पट्टा आंदोलन की आड़ में अवैध जमीनों को वैध करने की कोशिश हो रही है? और जिन नेताओं की जमीनों में इतनी दिलचस्पी है, उनका इस पूरे खेल में असली रोल क्या है?
इन सवालों के जवाब जांच से ही सामने आएंगे, लेकिन उससे पहले प्रशासन की चुप्पी भी कम संदेहास्पद नहीं है।
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