सुखाड़िया यूनिवर्सिटी में सत्ता-संतुलन की साज़िश? दो साल तक दबा मामला, अब कुलपति विवाद के बाद ही क्यों हुई FIR

 

उदयपुर | मोहनलाल सुखाड़िया यूनिवर्सिटी, उदयपुर, राजस्थान के सबसे पुराने और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक — इन दिनों प्रशासनिक साज़िश और राजनीतिक समीकरणों की भंवर में फंसा है। भौतिकी विभाग के प्रोफेसर डॉ. महेन्द्र सिंह ढाका पर झूठे शैक्षणिक अनुभव का सहारा लेकर नियुक्ति पाने का आरोप नया नहीं है। नया यह है कि इस मामले में एफआईआर दर्ज होने में पूरे दो साल लग गए, और वह भी तब, जब कुलपति प्रो. सुनीता मिश्रा खुद विवादों में घिरीं।

अब सवाल उठ रहा है — क्या यह न्याय की देरी है या विश्वविद्यालय के भीतर चल रही सियासी साज़िश का हिस्सा? अगर प्रो. ढाका की नियुक्ति की जांच होती है तो और भी आचार्य, सह आचार्य और सहायक आचार्य के मामले उजागर हो सकते हैं, जिनकी नियुक्तियों में कहीं न कहीं गड़बड़ियां रही हैं। इसमें कई अफसर, नेता, पत्रकार, प्रोफेसरों के रिश्तेदारों के नाम शामिल हैं।

दो साल से दबा मामला : अब जाकर पुलिस हरकत में क्यों आई?

राजभवन से मिली जानकारी के अनुसार, मोहनलाल सुखाड़िया यूनिवर्सिटी प्रशासन ने 6 और 7 जुलाई 2023 को प्रतापनगर थाने में दो अलग-अलग शिकायतें भेजी थीं, जिनमें प्रो. ढाका पर फर्जी अनुभव का आरोप था। थाने में ये शिकायतें लंबी अवधि तक बिना कार्रवाई के पड़ी रहीं। मीडियाकर्मियों ने प्रतापनगर थाना प्रभारी राजेन्द्र चारण से संपर्क करने की कोशिश कई बार की गई — कॉल, मैसेज, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। यह वही थाना है जिसने अब जाकर, राज्यपाल के हालिया उदयपुर दौरे के बाद, अचानक एफआईआर दर्ज कर ली। राज्यपाल के दफ्तर से पुलिस को मिले “निर्देश” के बाद ही यह कार्रवाई संभव हुई।

एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया — “यूनिवर्सिटी की शिकायत फाइल दो साल से पेंडिंग थी। थाने को मौखिक रूप से कहा गया था कि फिलहाल इस पर कार्रवाई न की जाए। जब राजभवन ने निर्देश भेजे, तभी फाइल खोली गई।”

फर्जी अनुभव का मामला : जांच समिति ने पहले ही दिया था दोषी का निष्कर्ष

 

राजभवन के निर्देश पर अप्रैल 2022 में गठित जांच समिति ने पाया कि
प्रो. ढाका ने 2010 में भौतिकी के सह-आचार्य पद के लिए आवेदन करते समय 1 नवंबर 2007 का फर्जी अनुभव प्रमाणपत्र दिया था। जांच में सामने आया कि उन्होंने जिस संस्था में अनुभव का दावा किया, वहां से कोई वैध प्रमाण नहीं मिला।

समिति की रिपोर्ट (12 अप्रैल 2022) में साफ कहा गया था — “आवेदक द्वारा प्रस्तुत अनुभव पत्र में तथ्यों की गलत जानकारी दी गई है। यह आचरण विश्वविद्यालय सेवा नियमों का उल्लंघन है, तथा यह नियुक्ति धोखाधड़ी की श्रेणी में आती है।”

इसके बावजूद न यूनिवर्सिटी प्रशासन ने तत्काल कदम उठाया, न पुलिस ने कार्रवाई की।

कुलपति से नज़दीकी: सियासी शरण में मिली ‘ढाल’?

यूनिवर्सिटी के भीतर यह बात किसी रहस्य से कम नहीं कि प्रो. ढाका को कुलपति प्रो. सुनीता मिश्रा का “करीबी” माना जाता है। कुलपति के साथ उनकी निकटता पिछले तीन वर्षों से विश्वविद्यालय की नियुक्ति और प्रशासनिक फैसलों में कई बार चर्चा का विषय बनी।

एक वरिष्ठ प्रोफेसर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया — “जांच रिपोर्ट आने के बाद भी कार्रवाई न होना कोई संयोग नहीं था। जब तक कुलपति के पास ताक़त थी, मामला दबा रहा। अब जब उन पर खुद आरोप लगने लगे, तो यह फाइल बाहर आ गई।”

यह बयान इस थ्योरी को मज़बूती देता है कि एफआईआर दर्ज होना एक तरह से विश्वविद्यालय के भीतर सत्ता-संतुलन बदलने की रणनीति का हिस्सा है।

राज्यपाल के दौरे के बाद ‘फाइल’ खुली

यूनिवर्सिटी सूत्रों के मुताबिक, राज्यपाल के उदयपुर आगमन से ठीक तीन दिन पहले प्रशासन ने राजभवन को प्रो. ढाका मामले की पूरी फाइल भेजी थी। राज्यपाल, जो विश्वविद्यालयों के चांसलर भी हैं, ने इस मामले पर सख्ती दिखाई और पुलिस को कार्रवाई के निर्देश दिए।

राजभवन सूत्र ने बताया — “हमारे पास शिकायत थी कि विश्वविद्यालय की जांच सिफारिशों पर दो साल से कोई कार्रवाई नहीं हुई। यह मामला भ्रष्टाचार और नैतिकता दोनों से जुड़ा है। इसलिए हमने पुलिस को तत्काल रिपोर्ट दर्ज करने का निर्देश दिया।”

इस बयान के बाद ही प्रतापनगर थाने ने एफआईआर दर्ज की।
लेकिन यह सवाल अभी भी बना हुआ है — क्या पुलिस को कार्रवाई के लिए ‘राजभवन से आदेश’ का इंतज़ार करना पड़ा?

कुलपति विवाद के बाद सियासी मोर्चे पर बदलते समीकरण

एफआईआर दर्ज होने का समय भी बेहद दिलचस्प है। पिछले डेढ़ महीने से कुलपति प्रो. सुनीता मिश्रा पर कई प्रशासनिक निर्णयों को लेकर विवाद चल रहा है। विपक्षी गुट लगातार उनके इस्तीफे की मांग कर रहा है।

ऐसे में उनके “करीबी” प्रो. ढाका पर एफआईआर दर्ज होना कैंपस में एक “सियासी मैसेज” की तरह देखा जा रहा है।

यूनिवर्सिटी के एक छात्र संगठन पदाधिकारी ने कहा — “यह कार्रवाई न्याय से ज़्यादा सियासत लगती है। दो साल तक किसी को कुछ याद नहीं रहा, अब जब वीसी पर दबाव बढ़ा तो उनके लोगों पर केस हो गए।”

इस विवाद ने यूनिवर्सिटी की सियासत को एक बार फिर दो हिस्सों में बांट दिया है —
जहां एक गुट इसे “सिस्टम की सफाई”, तो दूसरा “सियासी प्रतिशोध” बता रहा है।

थाने की चुप्पी और यूनिवर्सिटी का मौन

पत्रकारों ने प्रतापनगर थाने से लेकर यूनिवर्सिटी प्रशासन तक कई बार आधिकारिक प्रतिक्रिया मांगी, लेकिन किसी ने ऑन रिकॉर्ड कुछ नहीं कहा। रजिस्ट्रार वी.सी. गर्ग ने केवल इतना कहा — “हमने जो कार्रवाई करनी थी, कर दी। अब मामला पुलिस के पास है।” थाना अधिकारी ने भी टिप्पणी करने से मना किया। यह संस्थागत मौन बताता है कि यूनिवर्सिटी और पुलिस दोनों किसी ‘ऊपरी दबाव’ के बीच काम कर रही थीं।

क्या यह न्याय की जीत है या सियासी रणनीति का हिस्सा?

पत्रकारिता के दृष्टिकोण से यह मामला केवल एक शिक्षक की फर्जी नियुक्ति नहीं,
बल्कि राज्य विश्वविद्यालयों में व्याप्त सत्ता, प्रभाव और सियासी हस्तक्षेप की गहराई को उजागर करता है।

यदि न्यायिक प्रक्रिया सच में निष्पक्ष होती, तो एफआईआर दो साल पहले ही दर्ज हो जाती।
लेकिन जब विश्वविद्यालय में सियासत के समीकरण बदले, तब जाकर “न्याय की गाड़ी” चली। एक सेवानिवृत्त कुलसचिव ने कहा —

“यह एफआईआर सही कदम है, लेकिन इसका समय सियासी रूप से प्रेरित है। विश्वविद्यालयों में फाइलें तभी खुलती हैं जब किसी की कुर्सी हिलती है।”

🔹 निष्कर्ष: शिक्षा बनाम सत्ता

मोहनलाल सुखाड़िया यूनिवर्सिटी का यह प्रकरण यह सवाल छोड़ जाता है कि
क्या हमारे विश्वविद्यालय शिक्षा के केंद्र हैं या राजनीतिक शक्ति के प्रयोग स्थल?

प्रो. महेन्द्र ढाका के खिलाफ दर्ज एफआईआर अपने आप में न्याय की प्रक्रिया हो सकती है,
लेकिन इसके पीछे के हालात और समयबद्धता यह दिखाते हैं कि
यह मामला सिर्फ कानूनी नहीं — सियासी पटकथा का हिस्सा भी है।

जब तक विश्वविद्यालयों में प्रशासनिक कार्रवाई भी गुटबाज़ी, निष्ठा और सत्ता संतुलन के हिसाब से तय होती रहेगी,
तब तक ऐसे हर एफआईआर के पीछे एक सवाल गूंजता रहेगा —

“क्या यह न्याय है, या किसी साज़िश का स्क्रिप्टेड अंत?”

About Author

Leave a Reply