डॉ. लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ ने किया ‘हिन्दूपति महाराणा संग्राम सिंह प्रथम – स्वतंत्रता के ध्वजधारक’ पुस्तक का विमोचन


उदयपुर। सिटी पैलेस, उदयपुर में मंगलवार को श्रीजी डॉ. लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ की अध्यक्षता में महाराणा सांगा को समर्पित पुस्तक ‘हिन्दूपति महाराणा संग्राम सिंह प्रथम स्वतंत्रता के ध्वजधारक’ का विधिवत विमोचन किया गया। इस अवसर पर राजस्थान के प्रमुख इतिहासकारों, शोधकर्ताओं और लेखकों का दल भी मौजूद रहा।

डॉ. मेवाड़ ने इतिहास लेखन की प्रेरक परंपरा को रेखांकित करते हुए कहा—“जब तक प्रेरक इतिहास लेखन में आपकी कलम चलेगी, उसमें स्याही भरने की जिम्मेदारी मेरी।”

पुस्तक में राणा सांगा के जीवन और संघर्षों का विस्तृत वर्णन

यह पुस्तक मेवाड़ के 50वें श्री एकलिंग दीवान महाराणा संग्राम सिंह प्रथम (राणा सांगा) के जीवन-दर्शन, मातृभूमि रक्षा, धर्म-संरक्षण, मेवाड़ी आदर्शों और राष्ट्र-निष्ठा जैसे विभिन्न पहलुओं पर केंद्रित है। इसमें बयाना व खानवा युद्ध, सैन्यनीति, कूटनीति, पड़ोसी राज्यों से संबंध, ताम्रपत्र व अभिलेखों सहित कई अप्रकाशित शोध सामग्री शामिल की गई है।

इतिहासकारों के साथ सारगर्भित चर्चा

विमोचन कार्यक्रम में डॉ. लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ और विद्वानों के मध्य राणा सांगा कालीन इतिहास, संस्कृति, महत्वपूर्ण दस्तावेजों और सामाजिक पहलुओं पर खुलकर चर्चा हुई।

डॉ. मेवाड़ ने इतिहासकारों व शोधकर्ताओं को फैक्चुअल रिसर्च पर केंद्रित व्याख्यानमालाओं और संवाद-सत्रों के लिए आमंत्रित किया तथा फाउण्डेशन की ओर से हरसंभव सहयोग देने की घोषणा की।

फाउंडेशन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी डॉ. मयंक गुप्ता ने बताया कि पुस्तक में पं. नरेन्द्र मिश्र की कविताएं, कवि माधव दरक की काव्य-यात्रा और अनेक शोधपरक लेख एक ही संकलन में सम्मिलित किए गए हैं।

कार्यक्रम में उपस्थित विद्वान

डॉ. जे.के. ओझा, डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू, डॉ. राजेन्द्रनाथ पुरोहित, डॉ. मनीष श्रीमाली, कल्पेश प्रताप सिंह, डॉ. स्वाति जैन और गिरिराज सिंह सहित अनेक इतिहासकार कार्यक्रम में शामिल हुए।

कविताओं में राणा सांगा का पराक्रम

पंडित नरेन्द्र मिश्र और कवि माधव दरक की पंक्तियाँ पुस्तक की विशेषता हैं, जिनमें राणा सांगा के 80 घावों के बाद भी न डिगने वाले साहस और रणनिष्ठा को वर्णित किया गया है।

इतिहासकारों की दृष्टि में राणा सांगा

वरिष्ठ इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने राणा सांगा को “हिन्दुस्तान का अंतिम ऐसा हिन्दू राजा” बताया था, जिसके नेतृत्व में विभिन्न जातियाँ और राजनीतिक इकाइयाँ एकजुट होकर विदेशी शक्तियों के विरुद्ध खड़ी हुईं। राणा सांगा की वीरता और विस्तारवादी धैर्य से मेवाड़ की सीमाएँ दिल्ली से टकराने लगी थीं।

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