उदयपुर फाइल्स…कन्हैयालाल के किरदार को विजयराज ने बेहतर तरीके से निभाया, उनके डायलॉग ने ही दर्द को खींचा

उदयपुर/नई दिल्ली। रिव्यू करने वालों के मुताबिक उदयपुर फाइल्स फिल्म की जो कहानी दिखाई गई है, वो इतनी पावरफुल और संवेदनशील है कि स्क्रीन पर बिना किसी बनावटीपन के भी असर डाल सकती थी. लेकिन फिल्म उस प्रभाव को कायम नहीं रख पाती. इसके कई कारण हैं:

फिल्म समीक्षकों का मानना है कि इस फिल्म की जान हैं विजय राज, जिनका अभिनय बेहद प्रभावशाली है. उनका हर एक्सप्रेशन, हर डायलॉग आपको उस दर्द में खींच लाता है, जिसे इस फिल्म का मूल संदेश बनना चाहिए था. वहीं रजनीश दुग्गल भी संतुलित अभिनय करते हैं, लेकिन बाकी कलाकारों का काम औसत से भी नीचे है।

फर्स्ट हाफ बहुत कमजोर है, स्क्रिप्ट बिखरी हुई लगती है. इंडिया-पाक एंगल को जबरदस्ती ठूंसा गया है, जो विषय की गंभीरता को कमज़ोर करता है. लो बजट प्रोडक्शन, खराब वीएफएक्स और सपोर्टिंग एक्टर्स की कमजोर परफॉर्मेंस फिल्म की गंभीरता पर असर डालती है. हालांकि कन्हैयालाल की हत्या वाले सीन और उसके बाद का ट्रीटमेंट दर्शकों को झकझोर देता है।

लेखन और निर्देशन : फिल्म को लिखा है अमित जानी, भारत सिंह और जयंत सिंह ने, जबकि निर्देशन भारत श्रीनाटे का है. स्क्रिप्ट में दम होने के बावजूद स्क्रीनप्ले और नैरेशन में वह धार नहीं है जिसकी जरूरत इस संवेदनशील विषय को थी।

उदयपुर में इस फिल्म को कन्हैयालाल के बेटों ने अपनी पिता की तस्वीर के साथ इसको देखा और घटना का सीन देखकर भावुक हो गए।

फिल्म में पत्रकार अंजना सिंह की भूमिका निभाने वाली प्रीति झंगियानी का मानना है कि “यह फ़िल्म धर्म के बारे में नहीं है—यह फ़िल्म न्याय के बारे में है।”


प्रीति झंगियानी के ये शब्द उस समय आए जब उनकी फ़िल्म उदयपुर फाइल्स को लेकर कानूनी और सामाजिक बहस अपने चरम पर थी। पत्रकार अंजना सिंह की भूमिका निभाने वाली प्रीति, न केवल कैमरे के सामने बल्कि सार्वजनिक मंचों पर भी फ़िल्म के उद्देश्य और इसके नैतिक दायित्व का डटकर समर्थन कर रही हैं।

2022 में हुए दर्जी कन्हैया लाल की नृशंस हत्या पर आधारित यह फ़िल्म एक खुफ़िया जांच के दृष्टिकोण से घटनाओं की परत-दर-परत पड़ताल करती है। निर्देशक ने कट्टरपंथ, सामाजिक ज़िम्मेदारी, और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की सीमाओं जैसे असहज लेकिन ज़रूरी प्रश्नों को उठाने का प्रयास किया है।

हालांकि फ़िल्म के खिलाफ़ एक अभियुक्त ने याचिका दाखिल कर यह दावा किया था कि उदयपुर फाइल्स की रिलीज़ से उसकी निष्पक्ष सुनवाई प्रभावित हो सकती है, लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट ने फ़िल्म की रिलीज़ पर रोक लगाने से इनकार करते हुए स्पष्ट कर दिया कि फ़िल्म में अभियुक्त का नाम नहीं लिया गया है और इसे सभी नियामक मंज़ूरियाँ प्राप्त हैं। अदालत ने कहा कि “प्रथम दृष्टया कोई मामला नहीं बनता जिससे फ़िल्म पर रोक लगाई जाए।”

रचनात्मक स्वतंत्रता बनाम न्यायिक प्रक्रिया

इस फ़ैसले के साथ अदालत ने न केवल फ़िल्म निर्माताओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पुष्टि की, बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि रचनात्मक अभिव्यक्ति और न्यायिक निष्पक्षता एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि सह-अस्तित्व में रह सकते हैं।

प्रीति झंगियानी का कहना है : “जब कोई जघन्य अपराध होता है, तो समाज की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वो उससे आंखें न मूंदे। हमनें वही किया है—सत्य को सामने लाने की कोशिश।”

वह इस बात पर ज़ोर देती हैं कि उदयपुर फाइल्स न तो किसी विचारधारा का प्रचार करती है, न ही किसी धर्म के खिलाफ़ है। यह फ़िल्म केवल एक सवाल पूछती है: क्या हमने न्याय के साथ न्याय किया?

न्याय का नैरेटिव : ‘उदयपुर फाइल्स’ क्या कहती है

इस फ़िल्म की स्क्रिप्ट एक ऐसी घटना को उठाती है जो भारत के लोकतांत्रिक तानेबाने को झकझोर गई थी। यह केवल हत्या की कहानी नहीं है, यह उस सामाजिक चुप्पी पर सवाल है जो हिंसा के बाद फैलती है। विजय राज, रजनीश दुग्गल, मुश्ताक खान जैसे अनुभवी कलाकारों के साथ प्रीति झंगियानी का प्रदर्शन भी दर्शकों और आलोचकों दोनों के लिए चर्चा का विषय बन रहा है।

एक फ़िल्म जो फ़िल्म से आगे जाती है

उदयपुर फाइल्स को लेकर जो संवाद उत्पन्न हो रहा है, वह महज़ सिनेमा की परिधि में सीमित नहीं है। यह फिल्म एक ऐसी बहस को जन्म देती है जो अदालत से लेकर आम दर्शक तक जाती है—कि क्या कला को सामाजिक प्रश्न पूछने का अधिकार है? और क्या समाज उन प्रश्नों का सामना करने को तैयार है?

विचारधारा नहीं, विवेक का विमर्श

दिल्ली हाईकोर्ट का फ़ैसला और प्रीति झंगियानी का स्टैंड इस ओर इशारा करता है कि देश में अब भी वह स्पेस ज़िंदा है जहां रचनात्मकता और न्यायिक प्रक्रिया एक-दूसरे के साथ खड़े हो सकते हैं। उदयपुर फाइल्स एक ऐसी फ़िल्म है जो सच्चाई से भागती नहीं, बल्कि उसे मंच देती है—शांति से, लेकिन संकल्प के साथ।

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