ईरान में सिख समुदाय: एक सदी पुरानी साझी विरासत की कहानी

 

सिखों का ईरान आगमन : एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

ईरान में सिखों की मौजूदगी कोई हाल की बात नहीं है। यह कहानी 20वीं सदी की शुरुआत से शुरू होती है, जब भारतीय उपमहाद्वीप के पंजाबी सिख व्यापार और रोज़गार की तलाश में पर्शिया (वर्तमान ईरान) पहुंचे। लगभग 1900 से 1920 के बीच, ब्रिटिश भारतीय सेना में काम करने वाले कई सिख सैनिक ज़ाहेदान क्षेत्र में तैनात किए गए। बाद में वे यहीं बस गए।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद कुछ सिखों को मुआवज़े में ट्रक मिले, जिसके बाद ट्रांसपोर्ट व्यवसाय में उनकी पकड़ मजबूत हुई।

ज़ाहेदान : ‘पानी की चोरी’ से ‘इबादत की ज़मीन’ तक

शुरुआत में ज़ाहेदान को ‘दुष्टेयाब’ कहा जाता था, जिसका अर्थ है ‘पानी की चोरी’। लेकिन जब ईरान के पूर्व शासक रज़ा शाह पहलवी ने वहां के पगधारी सिख किसानों को देखा, तो उन्होंने उन्हें सम्मानपूर्वक ‘फकीर’ कहा और गांव का नाम बदलकर ‘ज़ाहेदान’ रखा, जिसका अर्थ है ‘ईश्वर के उपासक’।

यही गांव आज सिखों की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत का केंद्र बन गया है।

गुरुद्वारे : आस्था के केंद्र

ईरान में सिख समुदाय के दो प्रमुख गुरुद्वारे हैं:

भाई गंगा सिंह सभा गुरुद्वारा, तेहरान

ज़ाहेदान गुरुद्वारा, सिस्तान-बलूचिस्तान प्रांत में

तेहरान स्थित गुरुद्वारे में कई भारतीय प्रधानमंत्रियों ने दर्शन किए हैं, जिनमें अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ. मनमोहन सिंह, और नरेंद्र मोदी शामिल हैं।

भाषा, संस्कृति और समाज में मेलजोल

ईरानी सिख पंजाबी और गुरुमुखी बोलते हैं, लेकिन फारसी उनकी रोज़मर्रा की भाषा बन चुकी है। यह उनका ईरानी समाज में घुल-मिल जाना दर्शाता है। सिखों के दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह जी की रचना ज़फ़रनामा फारसी में लिखी गई थी, जो सिख-ईरानी सांस्कृतिक जुड़ाव का प्रमाण है।

तेहरान की मंजीत कौर, जिनकी फारसी पर जबरदस्त पकड़ है, ईरानी संसद में अनुवादक के तौर पर भी काम कर चुकी हैं।

 

व्यवसाय और जीवनशैली

प्रारंभ में सिख समुदाय ट्रकिंग और ट्रांसपोर्ट से जुड़ा था, लेकिन समय के साथ उन्होंने व्यापार, उद्योग, शिक्षा और यहां तक कि सेना में भी अपनी पहचान बनाई।

वरिष्ठ पत्रकार सैयद नक़वी के अनुसार, “ईरानी सिख अपने मेहमाननवाज़ स्वभाव और स्थानीय संस्कृति के साथ सामंजस्य के लिए जाने जाते हैं। वे जहां जाते हैं, वहां की भाषा और रिवाज़ अपना लेते हैं, लेकिन अपनी धार्मिक परंपराएं नहीं छोड़ते।”

इस्लामी क्रांति और उसके प्रभाव

1979 की इस्लामी क्रांति ने ईरान में व्यापक राजनीतिक और धार्मिक बदलाव लाए। शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी को सत्ता छोड़नी पड़ी और देश में इस्लामिक शासन की स्थापना हुई।

इस परिवर्तन ने कई गैर-मुस्लिम समुदायों को प्रभावित किया। कुछ सिख परिवार भारत लौट आए, लेकिन कई परिवार वहीं रह गए और बदलती परिस्थितियों में खुद को ढाल लिया।

गुरलीन कौर, जो ज़ाहेदान में जन्मी थीं, बताती हैं कि क्रांति के बाद माहौल जरूर बदला लेकिन ईरानियों की उदारता बनी रही।

सुरक्षा चिंताएं और चुनौतियां

2008 में तेहरान में गुरलीन कौर के पिता और चाचा पर हमला हुआ, जिसमें उनके चाचा की मृत्यु हो गई। इसके बाद गुरलीन अपने परिवार के साथ भारत लौट आईं। यह घटना अल्पसंख्यक समुदाय की सुरक्षा को लेकर चिंताओं को उजागर करती है।

आज ईरान में लगभग 50 सिख परिवार बचे हैं, जो मुख्य रूप से तेहरान और ज़ाहेदान में रहते हैं। वर्तमान में ईरान-इसराइल तनाव और पश्चिमी प्रतिबंधों के कारण वहां रहना और व्यवसाय करना चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है।

सिख-ईरानी रिश्तों की विशेषताएं

धार्मिक सहिष्णुता – सिखों को अब तक धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त रही है।

सांस्कृतिक समावेश – सिखों ने फारसी भाषा और संस्कृति को अपनाया।

आर्थिक आत्मनिर्भरता – ट्रांसपोर्ट से लेकर व्यापार और सेना तक, सिखों ने खुद को स्थापित किया।

राजनयिक मान्यता – भारतीय नेताओं का गुरुद्वारों में आना, इन संबंधों की मजबूती दर्शाता है।

एक विरासत जो आज भी जीवित है

ईरान में सिख समुदाय की कहानी केवल प्रवास और बसने की नहीं है, बल्कि संघर्ष, स्थायित्व, और संस्कृति के परस्पर सम्मान की मिसाल भी है। सिखों ने न केवल अपनी धार्मिक पहचान बनाए रखी बल्कि एक ऐसे देश में समरसता से जीवन जिया जो पूरी तरह से इस्लामी शासन में है।

यह संबंध आज भी जीवित है, और यह उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले वर्षों में ईरान और सिख समुदाय के बीच यह विरासत और गहराएगी।

स्रोत : गुरलीन कौर (ज़ाहेदान), प्रो. हरपाल सिंह पन्नू, सैयद नक़वी, बीबीसी रिपोर्ट्स

 

 

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