
जयपुर की एक ठंडी सुबह थी। स्पेशल ऑपरेशंस ग्रुप के एसपी ज्ञानचंद यादव अपनी कुर्सी पर झुके हुए थे। टेबल पर फाइलों का ढेर लगा था, लेकिन उनकी नजर बार-बार मोबाइल स्क्रीन पर जा रही थी। फोन पर एक गुमनाम कॉल आई थी—आवाज़ में डर भी था और गुस्सा भी।
“साहब, सरकारी दफ्तरों में बैठे कुछ लोग दिव्यांग नहीं हैं, लेकिन नौकरी दिव्यांग कोटे से मिली है। असली अपंग तो बाहर लाइन में खड़े हैं… और ये लोग सालों से वेतन खा रहे हैं।”
कॉल कटते ही यादव ने बगल में खड़े एएसपी भवानी शंकर मीणा को देखा। “टीम तैयार करो,” उन्होंने धीमी लेकिन ठंडी आवाज़ में कहा, “अब इनका खेल खत्म होगा।”
कुछ ही दिनों में SOG की टीमें जयपुर, अलवर, जोधपुर, सीकर और भीलवाड़ा के सरकारी दफ्तरों में बिखर गईं। यह कोई खुली कार्रवाई नहीं थी, बल्कि गुप्त निगरानी। जिनके फाइलों में ‘दृष्टिबाधित’, ‘श्रव्य बाधित’ या ‘लोकोमोटर दिव्यांग’ लिखा था, उनकी असल जिंदगी पर नजर रखी जाने लगी।
एक ‘दृष्टिबाधित’ क्लर्क को स्कूटर पर बाजार में खरीदारी करते देखा गया। एक ‘श्रव्य बाधित’ शिक्षक को क्रिकेट के मैदान में चौके-छक्के मारते हुए कैमरे में कैद किया गया। एक ‘लोकोमोटर दिव्यांग’ अफसर सीढ़ियां चढ़ते-उतरते ऐसे दिखा, जैसे कोई एथलीट हो।
टीमें चुपचाप फोटो खींचतीं, वीडियो रिकॉर्ड करतीं और सबूत जुटाती रहीं। कुछ ही हफ्तों में 42 नाम तय हो गए। अब बारी थी सीधा टकराने की।
फरवरी की एक सुबह, 29 संदिग्ध सरकारी कर्मचारियों को SOG मुख्यालय बुलाया गया। बाहर हथियारबंद जवान खड़े थे, अंदर SMS मेडिकल कॉलेज के विशेषज्ञ डॉक्टर अपने-अपने कमरों में बैठ चुके थे। मुख्यालय का माहौल भारी था। हर चेहरा कुछ कह रहा था—किसी में घबराहट, किसी में नकली आत्मविश्वास।
दरवाजा खुला, आवाज आई, “अगला अंदर आए।” एक-एक कर लोग जांच कक्ष में जाते। डॉक्टर सवाल पूछते, परीक्षण करते। कुछ मिनट में बाहर आते तो उनके चेहरे का रंग उड़ चुका होता।
पूरे दिन चली जांच के बाद डॉक्टरों ने रिपोर्ट SOG को सौंपी। एसपी यादव ने पन्ने पलटे, और उनका चेहरा कठोर हो गया। 29 में से 24 के प्रमाणपत्र फर्जी निकले।
श्रव्य बाधित श्रेणी के सभी 13 नकली थे। दृष्टिबाधित श्रेणी में 8 में से 6 झूठे। लोकोमोटर दिव्यांग श्रेणी में 8 में से 5 नकली। केवल 5 लोग ही वास्तव में 40 प्रतिशत या उससे अधिक दिव्यांग पाए गए।
रिपोर्ट पढ़कर एएसपी मीणा ने ठंडे स्वर में कहा, “अब FIR होगी… जेल भेजेंगे।” दोषियों पर धारा 420, 467, 468 और 471 के तहत केस दर्ज होगा। इसका मतलब—कई साल की कैद, सरकारी नौकरी से बर्खास्तगी और जिंदगी भर का कलंक।
लेकिन असली सवाल वहीं खड़ा था—क्या ये सब अकेले हुआ? या इसके पीछे कोई संगठित गैंग है, जिसमें मेडिकल बोर्ड के लोग भी शामिल हैं? बिना अंदरूनी मदद के इतने बड़े स्तर पर फर्जी सर्टिफिकेट बनना नामुमकिन लगता था।
SOG ने अगला कदम तय कर लिया था—अब निशाना सिर्फ नकली कर्मचारी नहीं, बल्कि वो पूरा नेटवर्क होगा, जिसने सालों तक असली हकदारों का हक छीना। खेल खत्म नहीं हुआ था, असली कहानी तो अब शुरू हो रही थी…।



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