कर्नाटक के एक छोटे से कस्बे में जन्मी, बानू मुश्ताक़ की कहानी आज की उस आधुनिक भारतीय महिला की कहानी है, जो अपने भीतर के लेखन-दीप से दुनिया को रोशन करती है। “हार्ट लैंप” के लिए उन्हें इंटरनेशनल बुकर प्राइज़ मिलना न सिर्फ कन्नड़ साहित्य की, बल्कि भारत की भाषाई विविधता की भी वैश्विक जीत है।
बुकर की रौशनी में चमकती एक ग्रामीण बेटी
2025 के इंटरनेशनल बुकर प्राइज़ से सम्मानित बानू मुश्ताक़ आज वैश्विक साहित्य जगत का चर्चित नाम हैं। मूल रूप से कन्नड़ भाषा में लिखे उनके लघु कथा संग्रह “हार्ट लैंप” ने न सिर्फ पाठकों का दिल जीता, बल्कि आलोचकों को भी स्तब्ध किया।
इस संग्रह का अंग्रेज़ी अनुवाद लेखिका व अनुवादक दीपा भास्ती ने किया, और अब यह किताब 35 विदेशी भाषाओं और 12 भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होने जा रही है। इसके ऑडियोबुक संस्करण पर भी काम चल रहा है।
लेकिन यह सम्मान बानू की सिर्फ एक साहित्यिक जीत नहीं, यह उस समाज से टकराने वाली एक लड़की की विजय है, जिसने भाषा, पितृसत्ता, वर्ग और मज़हबी पहचान की दीवारों को लांघकर खुद को पुनर्परिभाषित किया।
“लड़कियों को उर्दू मीडियम में, ताकि घरेलू रहें”
बानू का बचपन एक असहज शुरुआत थी। उनका दाखिला उर्दू मीडियम स्कूल में हुआ, जहां वे एक साल तक गईं लेकिन “एक अक्षर तक नहीं सीखा”। वह माहौल उन्हें रास नहीं आया—ना शिक्षक, ना पाठ्यक्रम, और ना ही उद्देश्य।
“हमारे यहां लड़कों को कन्नड़ और लड़कियों को उर्दू मीडियम में डालते थे, ताकि वे मज़हबी बनें, और घरेलू माहौल में ढल सकें।”
पर बानू उस साँचे में नहीं ढलीं। जब पिता ने उन्हें कन्नड़ मीडियम स्कूल में डाला, तो एक हफ्ते में अल्फ़ाबेट सीखकर, छह महीनों में किताबें पढ़ने लगीं। यह पहला इशारा था कि बानू को शब्दों से, भाषा से, और खुद से प्यार था—परंपराओं से नहीं।
एक बेटी, जिस पर पिता को यक़ीन था
उनके पिता ने एक भविष्यवाणी पढ़ी थी जो एक ब्राह्मण दोस्त ने दी थी—कि “ये लड़की बड़ी होकर बहुत सी किताबें लिखेगी और नाम कमाएगी।” यह यक़ीन एक सामान्य पिता की आशा से कहीं अधिक था; यह विश्वास बानू के जीवन की नींव बना।
बानू बताती हैं कि उनके पिता और बाद में उनके पति दोनों ने उन्हें हमेशा प्रोत्साहित किया। वे नहीं चाहते थे कि वह केवल “बीवी और मां” बनकर रह जाएं।
शादी, ज़िम्मेदारियां और विद्रोह
कॉलेज के दिनों में सक्रिय बानू ने साहित्यिक मंचों से लेकर डिबेट तक में हिस्सा लिया। उसी कॉलेज में एक सीनियर से उनकी शादी हुई। लेकिन विवाह के बाद उन्हें बड़े परिवार की जिम्मेदारियों के कारण नौकरी छोड़नी पड़ी।
“मैं खुश नहीं थी। मुझे घर के बाहर की दुनिया चाहिए थी। स्पेस चाहिए था।”
उस अधूरेपन ने उन्हें भीतर से झकझोरा। पोस्टपार्टम डिप्रेशन की स्थिति में उन्होंने आत्महत्या तक की कोशिश की। उनके पति ने उन्हें संभाला और याद दिलाया कि “जिंदगी अभी बाकी है।”
एक्टिविज़्म और पहला चुनाव
बानू का अगला मोर्चा था समाज। कर्नाटक में जब सामाजिक आंदोलनों की लहर थी, उन्होंने भाषण दिए, नारे लगाए। यह कार्य कई लोगों को पसंद नहीं आया। लेकिन उनके पिता ने उन्हें प्रोत्साहित किया और म्यूनिसिपल चुनाव लड़वाया।
बिना माइक, बिना पैसा, सिर्फ हाथ से लिखे पर्चे बांटकर बानू ने चुनाव जीत लिया। एक घरेलू महिला से एक निर्वाचित प्रतिनिधि तक का यह सफर उनकी प्रतिबद्धता का प्रमाण था।
लंकेश पत्रिका और पत्रकारिता की शुरुआत
बानू कहती हैं, “जब मैं फिर उदास हो गई, तो मेरे पति ने मुझे बहुत सी किताबें लाकर दीं। उनमें लंकेश पत्रिका भी थी।”
उसे पढ़ते हुए बानू को महसूस हुआ कि वह इसमें लिख सकती हैं। उन्होंने इस्लाम और महिला अधिकारों पर एक लेख भेजा—जो छप गया। फिर क्या था, उन्होंने दस साल तक लंकेश के लिए रिपोर्टिंग की।
कहानियों की ओर वापसी
पत्रकारिता के अनुभव ने उन्हें कहानियों की ओर मोड़ा। उनकी पहली लघु कथा संग्रह को कर्नाटक साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। यहीं से हार्ट लैंप की ओर उनकी यात्रा शुरू हुई।
उनकी कहानियां सिर्फ फिक्शन नहीं, अनुभवों की मशाल थीं। वे पितृसत्ता, मज़हबी संकीर्णता और महिला अस्मिता पर सवाल उठाती थीं।
सामाजिक बहिष्कार और साहस
एक बार जब उन्होंने कहा कि “मुस्लिम औरतें मस्जिद जा सकती हैं, और इस्लाम में कोई रोक नहीं है,” तो तीन महीने तक उनका सामाजिक बहिष्कार किया गया।
पर बानू झुकी नहीं। उन्हें पता था कि बदलाव के रास्ते आसान नहीं होते। उन्हें अपने शब्दों पर भरोसा था, और उस यथार्थ पर, जिससे वे जन्मी थीं।
बुकर का मंच और कन्नड़ की जीत
“शॉर्टलिस्ट होना ही काफी था। मुझे लगा था, लंदन गए हैं तो घूम-फिर आएंगे। स्पीच पांच दिन पहले ही लिखी थी।”
बानू की सादगी ही उनकी ताक़त है। वे जानती हैं कि बुकर सम्मान एक व्यक्तिगत जीत से कहीं ज़्यादा है। यह कन्नड़ भाषा, भारतीय महिलाओं, और प्रांतीय साहित्य की वैश्विक स्वीकृति है।
वे कहती हैं कि भारतीय भाषाओं के पास “बहुत कुछ कहने को है, बस उसे मंच मिलना चाहिए।”
एक मशाल, जो जलती रहेगी
आज बानू मुश्ताक़ का नाम जब लिया जाता है, तो वह न केवल बुकर विनर लेखिका, बल्कि एक मां, एक पत्नी, एक एक्टिविस्ट और एक जिंदा मिसाल के रूप में सामने आती हैं।
उनकी ज़िंदगी बताती है कि:
“कमरे में बंद औरत भी जब कलम उठाती है, तो उसकी आवाज़ सरहदें लांघ जाती है।”
स्रोत : बीबीसी हिंदी, रेफरेंस : लेखक इमरान कुरैशी के लेख से।
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