उदयपुर बीजेपी की संवेदनहीन सक्रियता पर सवाल : जब राजनीतिक संवाद खत्म होता है, तब ‘हाथापाई’ राजनीतिक अभिव्यक्ति का नया माध्यम बन जाती है

 

उदयपुर। उदयपुर की राजनीति इन दिनों एक अजीब मोड़ पर खड़ी है — जहां कभी सड़क पर जनता के लिए आवाज उठाने वाली भारतीय जनता पार्टी अब शहर की सियासत में डांडिया और वन भ्रमण के बीच ‘सक्रियता’ दिखा रही है। सवाल यह है कि क्या यह सक्रियता जनता के मुद्दों की है या केवल सियासी प्रदर्शन की?

बीजेपी, जो कभी उदयपुर में अपनी आंदोलनकारी छवि के लिए जानी जाती थी — वही पार्टी आज शहर के सामाजिक आयोजनों में “रचनात्मक” भागीदारी निभा रही है।
जहां पहले कटारिया जैसे नेता कलेक्ट्री के दरवाजे पर चढ़कर अफसरों को जवाब देते दिखते थे, वहीं अब वही संगठन डांडिया महोत्सव और वन भ्रमण में व्यस्त नजर आ रहा है।
यह बदलाव केवल कार्यक्रमों का नहीं, बल्कि राजनीतिक प्राथमिकताओं का भी प्रतीक बन गया है।

भुवाणा की घटना : विरोध की जगह हिंसा

भुवाणा में मंत्री झाबर सिंह खर्रा के कार्यक्रम के दौरान जो हुआ, उसने बीजेपी की “जनसंवाद” शैली पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। जब यूथ कांग्रेस के अरमान जैन और अन्य कार्यकर्ताओं ने शांतिपूर्वक काले झंडे दिखाकर विरोध जताया, तो उन्हें पीट दिया गया — और हैरत की बात यह कि पिटाई करने वालों में पार्टी के जिलाध्यक्ष तक कैमरे में कैद हो गए। यह घटना बताती है कि जब राजनीतिक संवाद खत्म होता है, तब ‘हाथापाई’ राजनीतिक अभिव्यक्ति का नया माध्यम बन जाती है।

वीडियो की राजनीति : नैरेटिव बनाम सच्चाई

हंगामे के बाद जो हुआ, वह भी कम दिलचस्प नहीं था। बीजेपी ने शहीद अभिनव नागौरी के पिता का वीडियो जारी कर यह साबित करने की कोशिश की कि विरोध करने वाले कांग्रेस कार्यकर्ता गलत थे। राजनीति में अब ‘वीडियो नैरेटिव’ नया हथियार बन चुका है — असल मुद्दा दब जाता है, और दृश्य प्रचार का साधन बन जाता है। यह घटना दिखाती है कि जनता की भावनाओं से खेलना अब राजनीतिक रणनीति का हिस्सा बन चुका है।

कभी संघर्ष का प्रतीक रही थी उदयपुर बीजेपी

यह वही उदयपुर है, जहां बीजेपी ने वर्षों तक अपनी साख संघर्षों से बनाई थी — चाहे देवास परियोजना की स्वीकृति के लिए जयपुर तक की यात्रा हो, या कृषि विश्वविद्यालय, आईआईटी, आईआईएम की मांग को लेकर धरना-प्रदर्शन। लेकिन अब तस्वीर बदल गई है। संगठन की ऊर्जा अब विरोध प्रदर्शन की जगह सांस्कृतिक आयोजनों में दिख रही है। यह बदलाव न केवल कार्यशैली का, बल्कि मानसिकता का भी है — जहां संघर्ष की जगह छवि-संवारने का प्रयास ज्यादा दिखता है।

सवाल : क्या यह जनसंवाद है या सियासी मनोरंजन?

डांडिया महोत्सव, वन भ्रमण, और सोशल मीडिया वीडियो — यह सब किसी भी पार्टी की जनसंपर्क रणनीति का हिस्सा हो सकते हैं, लेकिन जब जनता के असली मुद्दे गायब हो जाएं, तब वही गतिविधियाँ दिखावटी लगने लगती हैं। उदयपुर की जनता आज भी ट्रैफिक, जलभराव, बेरोज़गारी और विकास की धीमी रफ्तार से जूझ रही है। लेकिन सत्ताधारी पार्टी के स्थानीय संगठन इन मुद्दों पर आवाज उठाने की जगह ‘सांस्कृतिक सक्रियता’ में डूबे हैं।

राजनीतिक विश्लेषण : बदलते मूल्यों का संकेत

राजनीति अब ‘आंदोलन’ नहीं, ‘इवेंट’ बनती जा रही है। जहां कभी संघर्ष और विरोध से ताक़त मिलती थी, वहां अब ‘इवेंट मैनेजमेंट’ से छवि गढ़ी जा रही है। उदयपुर बीजेपी इसका ज्वलंत उदाहरण बन चुकी है — जिसने सड़कों से सोशल मीडिया तक अपनी प्राथमिकताओं का रूपांतरण कर लिया है। यह न तो संगठन की मजबूती दिखाता है, न जनता से जुड़ाव, बल्कि यह सत्ता के आराम में खोई राजनीतिक संवेदनहीनता का प्रतीक है।

राजनीतिक हिंसा, वीडियो युद्ध और इवेंट संस्कृति — यह सब कुछ समय के लिए लोकप्रियता दे सकते हैं, लेकिन स्थायी भरोसा नहीं। उदयपुर की जनता ने बीजेपी को इसलिए समर्थन दिया था क्योंकि उसने संघर्ष किया था, लेकिन अगर वही संघर्ष ‘डांडिया के मंच’ और ‘वन भ्रमण के फोटोशूट’ में खो जाएगा, तो जनता यह सब याद रखेगी।

राजनीति का असली चेहरा वह नहीं जो कैमरे दिखाते हैं, बल्कि वह है जो जनता महसूस करती है — और आज उदयपुर की जनता महसूस कर रही है कि राजनीति अपने रास्ते से भटक चुकी है।

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