
विश्वविख्यात ओडिसी नृत्यांगना से बातचीत
उदयपुर। विश्वविख्यात ओडिसी नृत्यांगना पद्मश्री रंजना गौहर का मानना है कि कला व्यक्ति को अच्छा इंसान बनाने में सहायक है, इसलिए हर व्यक्ति को कला से किसी न किसी माध्यम से जुड़ाव रखना चाहिए। ओडिसी, कत्थक, भारतनाट्यम् और छऊ नृत्य शैलियों पर समान अधिकार रखने वाली रंजना गौहर पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र की ओर से आयोजित कार्यक्रम मल्हार में प्रस्तुति देने के लिए उदयपुर आई। भारतीय शास्त्रीय नृत्य को देश-दुनिया में विशिष्ट पहचान दिलाने के कारण 2003 में पद्मश्री से सम्मानित रंजना गौहर के उदयपुर प्रवास के दौरान शिल्पग्राम स्थित दर्पण सभागार में उनके शास्त्रीय नृत्य विधा से जुड़ाव, अब तक के सफर, चुनौतियों, उपलब्धियों आदि पर विस्तृत चर्चा हुई। इसमें गौहर ने संगीत और नृत्य के प्रति युवा पीढ़ी के बढ़ते रूझान पर संतोष व्यक्त किया, वहीं दूसरी ओर कला की साधना में समर्पण की कमी पर चिन्ता भी व्यक्त की। श्री गौहर की सहायक जनसंपर्क अधिकारी विनय सोमपुरा से हुई बातचीत के संपादित अंश……

सूजसः उदयपुर में आपका स्वागत है। कैसा महसूस कर रहे?
रंजना : बहुत खुश हूं, आनंदित हूं। सच पूछिए तो इतना सुंदर सावन कहीं नहीं देखा। झीलें, हरी भरी पहाड़ियां और रिमझिम बारिश सचमुच अद्वितीय अनुभव है। मल्हार में प्रस्तुति देने आए हैं तो मेघों की मल्हार की संगत को मिलनी ही है। प्रकृति और कला का तो बहुत गहरा नाता है। प्रकृति कलाकारों को उत्साहित करती है और कला प्रकृति के रंगों को द्विगुणित करने में सहायक है। राग मल्हार की ही बात ले लो, हमारे कलाकार भी इसे अधिक पसंद करते हैं।
सूजस : आपने भारतीय शास्त्रीय नृत्य खास कर ओडिसी नृत्य को नई ऊंचाईयां दी। कत्थक से शुरूआत कर ओडिसी की ओर झुकाव कैसे हुआ ?
रंजना : 60 के दशक की शुरूआत में हम दिल्ली में रहते थे। उस समय मैं 4-5 साल की थी। घर के पास कत्थक स्कूल चलता था। उस समय पता नहीं था कि कौनसा नृत्य है, बस तबला बजता था और नृत्य करते थे। पिताजी भी वाद्य बजाते थे, तो नाचते लग जाती थी। इस पर पिताजी ने कत्थक स्कूल ज्वाइन करा दी। काफी सालों बाद शायद जब मैं 17-18 साल की थी तब दिल्ली में स्टेज शॉ में ओडिसी नृत्य की परफोर्मेंस देखी, तब मुझे लगा कि बस यही है मेरी आत्मा की आवाज। शायद यह संयोग ईश्वर का ही आशीर्वाद था। ठान लिया कि ओडिसी सीखना है, लेकिन कोई गुरू नहीं मिला। काफी लोगों ने ओडिशा जाकर सीखने की सलाह दी, लेकिन पिताजी से अनुमति नहीं मिली। आखिरकार 3-4 साल बाद दिल्ली में ही गुरू मिले और इसके बाद से पीछे मुड़ कर नहीं देखा।

सूजस : आपको शास्त्रीय नृत्य में नवाचारों के लिए जाना जाता है, उनके बारे में कुछ बताएं…
रंजना : देखिए कलाकार वही है जिनमें सृजनात्मकता है। कलाकार हर विषय-वस्तु को अलग ढंग से देखता है। प्रयोग और नवाचार कला और कलाकार दोनों को तरोताजा रखते हैं। इसलिए ओडिसी नृत्य में प्रयोग किए। गुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर ने महाभारत की एक पात्र चित्रांगदा पर बंगाली में गीत लिखे हैं। मैंने उन गीतों को सुना, चित्रांगदा के बारे में गुरूदेव जो कहना चाह रहे थे उसे समझने के लिए कई किताबें पढ़ी, कई लोगों से बातचीत की। इसके बाद उसे नृत्य में ढाला। वह इतना पसंद किया गया कि 100 से ज्यादा स्टेज शॉ में उसे परर्फाेम किया। इसी तरह नल-दमयंती की कथा पर प्रस्तुति तैयार की। इसमें एनिमेशन का भी उपयोग किया। अभी कुछ समय पहले संत कबीर को लेकर भीष्म साहनी की पुस्तक कबीरा खड़ा बाजार में… पर नृत्य-नाटिका तैयार की, जिसे बहुत पसंद किया जा रहा है।
सूजस : अब तक के सफर में किस तरह की चुनौतियां आई ?
रंजना : चुनौतियां तो हर राह पर मिलती हैं, लेकिन लगन, जुनून के साथ आगे बढ़ते रहना चाहिए। यदि आपका लक्ष्य-उद्देश्य पवित्र है और आपके प्रयासों में ईमानदारी है तो डगर स्वतः मिलती है, इतना ही नहीं मार्ग की कठिनाईयों भी खुद-ब-खुद हटती जाती हैं।
सूजस : आपके शुरूआती दौर तथा वर्तमान समय में क्या फर्क महसूस करती हैं ?
रंजना : जमीन-आसमान का फर्क है, ऐसा लगता है जैसे हम किसी और ही प्लेनेट पर आ गए हैं। इंटरनेट, सोशल मीडिया ने सभी क्षेत्रों की तरह कला क्षेत्र को भी बहुत अधिक प्रभावित किया है। निश्चित रूप से कला को सीखने वालों की संख्या बढ़ती है, लेकिन वह जोश, जुनून और लगन नजर नहीं आती। पहले की तरह गुरू-शिष्य परंपरा के भाव, कला के प्रति समर्पण, कलाकार का व्यवहार अब देखने को नहीं मिलते। लोगों को कम समय में कामयाब बनना है और कामयाबी का पैमाना सिर्फ पैसा कमाना रह गया है। आज कला के बारे में कुछ नहीं जानने वाला भी खुद को ग्रेट आर्टिस्ट के रूप में प्रजेंट करता है। लोग इसे मान भी लेते हैं। दूसरी ओर जो वाकई अच्छे कलाकार हैं, वे गुमनामी में जी रहे हैं।

सूजस : युवा पीढ़ी को क्या संदेश देना चाहेंगी ?
रंजना : भारत की सांस्कृतिक धरोहर विश्व में बेजोड़ है। युवा पीढ़ी को इन्हीं सांस्कृतिक विरासतों-धरोहरों को समझने, पहचानने, उनका आदर करने तथा उन पर गर्व करने की जरूरत है, क्योंकि यह विश्व भर में दुर्लभ हैं। हर व्यक्ति को कला से नजदीकियां रखनी चाहिए, चाहे वह कलाकार हो अथवा नहीं हो, क्योंकि कला मनुष्य को अच्छा इंसान बनाती है। कलाएं मनुष्य की कोमल भावनाओं को अभिव्यक्ति देती हैं। भावनाओं को समझने वाला व्यक्ति दूसरों के प्रति भी सौम्य रहता है और सौम्यता उसे अच्छा इंसान बनाती है।
Dr. Kamlesh Sharma
Joint Director,Public relations,
About Author
You may also like
-
उदयपुर पुलिस का बड़ा खुलासा : जमीन घोटाले में हिस्ट्रीशीटर सहित दो गिरफ्तार, करोड़ों की धोखाधड़ी का पर्दाफाश
-
सेंट मेरीज की मनसाची कौर बग्गा ने तैराकी में रचा इतिहास, जीते 5 स्वर्ण पदक
-
सेंट मेरीज़, न्यू फतेहपुरा की गोराधन सिंह सोलंकी ने मुक्केबाजी में स्वर्ण पदक जीता, राष्ट्रीय स्तर के लिए भी चयनित
-
उदयपुर शहर भाजपा कार्यकारिणी—कटारिया गुट ने खुद दूरी बनाई या नेतृत्व ने उनकी अनदेखी की?
-
विश्व फोटोग्राफी दिवस 2025 : क्या आपको मालूम है 2025 का World Press Photo of the Year कौनसा है?