
उदयपुर। वो शहर जिसकी सुबहें झीलों में सूरज को निहारती हैं और जिसकी शामें पानी की सतह पर बुझते सूरज के साथ उदासी की परछाइयाँ छोड़ जाती हैं।
लेकिन सैकड़ों सालों से ये शहर न सिर्फ सुंदरता का प्रतीक रहा है, बल्कि कभी-कभार ऐसी खामोश चीख़ें भी सुनता आया है, जिन्हें कोई सुन नहीं पाया।
आज की सुबह, रमेश डामोर का शव जब गोवर्धन सागर से बाहर निकाला गया, तब फिर एक बार यही सवाल ज़िंदा हो उठा—आख़िर कब तक?
कब तक ये झीलें किसी की आखिरी मंज़िल बनती रहेंगी?
सच तो ये है कि उदयपुर की इन खुली झीलों ने न जाने कितने लोगों की मायूसी को अपने भीतर समेटा है।
इन शांत सतहों के नीचे छिपा है एक शोर — अंदर टूटे हुए लोगों का शोर, जिन्हें शायद किसी ने समय रहते थामा नहीं।
झीलें महज़ पानी का बदन नहीं होतीं, ये शहर की आत्मा होती हैं।
लेकिन आज ये आत्मा, अपने ही लोगों के दुखों की कब्रगाह बनती जा रही है।
क्या वजह है कि ये आत्महत्या करने वालों के लिए इतनी आसान मंज़िल बन गई हैं?
फेंसिंग की कमी, सुरक्षा इंतज़ामों की लापरवाही, और सबसे बड़ा — प्रशासन की संवेदनहीन चुप्पी।
क्या इतनी बार हो चुकी घटनाएं भी प्रशासन के ज़मीर को नहीं जगा पा रहीं?
झीलों के किनारों पर फेंसिंग होना बेहद ज़रूरी है।
हो सकता है, इससे किसी का इरादा न बदले,
लेकिन अगर कोई फेंसिंग पार करने की कोशिश करता है, तो
उसे देखा जा सकता है, रोका जा सकता है, बचाया जा सकता है।
ये झीलें किसी की आखिरी सांस की जगह न बनें —
ये जगह बनें उम्मीद की, सुकून की, शांति की।
अब वक्त आ गया है कि हम सिर्फ श्रद्धांजलियां न दें,
बल्कि संवेदनशीलता और सुरक्षा के पुख्ता इंतज़ामों की मांग करें।
रमेश डामोर की मौत सिर्फ एक आंकड़ा नहीं है,
वो एक चेतावनी है – प्रशासन के लिए, समाज के लिए, हम सबके लिए।
उदयपुर को अब अपनी झीलों की तरह शांत नहीं,
बल्कि उनके किनारों पर सतर्क और ज़िम्मेदार बनना होगा।
मृतक रमेश डामोर भू-प्रबंधन कार्यालय गोवर्धन विलास में जमादार के पद पर कार्यरत था। पुलिस को मृतक की जेब से एक कारण बताओ नोटिस मिला है, जो भू-प्रबंधन अधिकारी द्वारा जारी किया गया था।
नोटिस में उससे 25 मार्च से बिना अनुमति गैरहाजिर रहने का जवाब तीन दिन में मांगा गया था। प्रारंभिक जांच में सामने आया है कि इसी नोटिस के कारण वह तनाव में था।
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