
उदयपुर के उस राजमहल की दीवारों के बीच जहां पत्थरों में भी इतिहास की साँसें धड़कती हैं, मैंने महाराणा प्रताप को केवल एक नाम या कथा नहीं माना—बल्कि उन्हें अपनी रगों में, अपनी चेतना में, अपने हर विचार में जिया है। मेरे लिए वे इतिहास के पात्र नहीं, वर्तमान के पथप्रदर्शक हैं। वे केवल युद्ध के महानायक नहीं, बल्कि विचार के वो योद्धा हैं, जिनकी तलवार से ज़्यादा उनकी रीढ़ ने भारत को सीधा खड़ा रहना सिखाया।
महाराणा प्रताप का जीवन किसी एक व्यक्ति का नहीं, एक समूची सभ्यता का संघर्ष था। जब उनकी आंखों के सामने उनके परिवार ने भूख सही, जब जंगलों में उनकी संतानें सूखी घास खाकर सोईं—वह केवल एक राजा का दर्द नहीं था, वह एक पिता की विवशता, एक पति की पीड़ा, और एक देशभक्त की जलती आत्मा थी।
उन्होंने जंगलों की छांव में शरण ली, लेकिन आत्मसम्मान को धूप में तपने से कभी रोका नहीं। उन्होंने दरबार नहीं छोड़ा, विलासिता नहीं ठुकराई—बल्कि स्वाभिमान के बदले सौंपे गए स्वर्ण सिंहासन को लात मार दी। यह केवल त्याग नहीं था, यह उस आत्मा की पुकार थी, जो कहती थी – “मैं झुकूंगा नहीं, भले ही टूट जाऊं!”
महाराणा प्रताप की लड़ाई महलों की रक्षा की नहीं थी, यह उस जनमानस की स्वतंत्रता की लड़ाई थी जो सदियों तक साम्राज्यवादी मानसिकता से दबी रही।
उनके लिए किसान, घास काटने वाला, तलवार ढालने वाला लोहार—सब समान थे।
उन्होंने केवल युद्ध नहीं लड़ा, बल्कि एक समानतावादी समाज की नींव रखी—जहां जात-पात से परे सिर्फ कर्म, धर्म और आत्मबल की पहचान थी।
वह ऐसे समाज के स्वप्नदृष्टा थे जहां सत्ता नहीं, सेवा सर्वोच्च हो।
आज जब समाज फिर से जातीय विभाजनों और वर्गीय असमानताओं में उलझ रहा है, तब महाराणा प्रताप की वह सोच—”किसी के आगे मत झुको, चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो”—हमारे सामाजिक आत्मबल को संजीवनी देती है।
महाराणा प्रताप ने आर्थिक विपन्नता में भी सत्ता के दान को ठुकरा कर आत्मनिर्भरता का बीज बोया। उन्होंने जंगलों में रहते हुए स्वदेशी संसाधनों से जीवन चलाया, यथासंभव समाज को साथ लेकर चलने का प्रयास किया।
जब अकबर ने उन्हें कई बार धन, जागीर, और सुख-सुविधाओं का लालच देकर झुकाने की कोशिश की, तब उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा—”मैं घास की रोटी खा लूंगा, लेकिन गुलामी नहीं करूंगा।”
यह वाक्य आज के आत्मनिर्भर भारत के मूल मंत्र से कितना मेल खाता है!
उनका जीवन हमें यह भी सिखाता है कि आर्थिक स्वतंत्रता तभी सार्थक है जब वह आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता से जुड़ी हो, न कि विदेशी चकाचौंध और लालच से।
महाराणा प्रताप केवल एक राजा नहीं थे, वह प्रतिरोध की राजनीति के जनक थे।
उनकी रणनीतियाँ, उनके युद्ध कौशल, उनकी नीति और उनका संदेश आज के हर राजनेता को एक सीख देता है—”राज करना है तो जन के साथ खड़े हो कर करो, सत्ता से नहीं, सेवा से शासन करो।”
जब अधिकांश प्रभावशाली लोग समर्पण की ओर झुक गए थे, तब प्रताप अकेले खड़े रहे। यह उनका ही साहस था कि उन्होंने व्यक्तिगत सत्ता के बजाय राष्ट्रीय स्वाभिमान को प्राथमिकता दी।
आज जब राजनीति अपने मूल स्वरूप ‘जनसेवा’ से हटकर सत्ता की होड़ बन चुकी है, तब महाराणा प्रताप की राजधर्म पर आधारित राजनीति एक आदर्श बनकर सामने खड़ी होती है।
उनकी गाथा : पीढ़ियों के लिए प्रेरणा
महाराणा प्रताप की कहानी केवल तलवार, घोड़े चेतक या हाथी रामप्रसाद की नहीं है।
वह संकल्प की बात है, सिद्धांतों की परीक्षा की बात है।
उनकी जयंती केवल एक तिथि नहीं, एक चेतना है—जो हमें याद दिलाती है कि स्वतंत्रता केवल अधिकार नहीं, उत्तरदायित्व भी है।"जब तक हमारी रीढ़ में प्रताप जैसी हिम्मत नहीं, तब तक स्वतंत्रता अधूरी है। जब तक राजनीति सेवा नहीं बनती, तब तक शासन अधूरा है। जब तक समाज में समानता नहीं आती, तब तक समृद्धि अधूरी है। और जब तक हम प्रताप की परिभाषा को नहीं जीते, तब तक भारत का आत्मसम्मान अधूरा है।"
आज की पुकार : आदर्शों की ओर लौटना
आज जब हम महाराणा प्रताप की 485वीं जयंती (ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया) पर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे हैं, तो यह क्षण केवल पुष्प चढ़ाने का नहीं—स्वयं के भीतर झांकने का है।
क्या हम सच में प्रताप के आदर्शों को जी पा रहे हैं? क्या हमने राष्ट्रनिर्माण को नारे से ऊपर उठाकर आत्मा की पुकार माना? क्या हमारी राजनीति, हमारी अर्थव्यवस्था, हमारा समाज और हमारी चेतना—महाराणा प्रताप की भावना के अनुरूप है?
यदि नहीं, तो यही समय है कि हम उनकी प्रतिमा की पूजा के साथ-साथ अपने भीतर की चेतना को जागृत करें।
उनका सबसे बड़ा संदेश यही था—”जो झुकता नहीं, वही इतिहास बनाता है।”
जय एकलिंग! जय मेवाड़! जय भारत!
नोट : पूर्व राजपरिवार के सदस्य डॉ. लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ के राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित लेख पर आधारित है।
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