
सैयद हबीब, उदयपुर।
सांझ ढल रही थी, और मंच पर आखिरी सीन की तैयारी थी। पर्दा गिरने से पहले कलाकारों की आंखें नम थीं, संवाद ठहर गए थे, और भावनाओं की तरंगों में सारा वातावरण डूब चुका था। आज मंच का वह सितारा, जिसने लोककला को अपने शब्दों और शोधों से अमर कर दिया, अपनी अंतिम यात्रा पर निकल पड़ा।
राजस्थान की लोकनाट्य परंपरा को एक नई पहचान देने वाले डॉ. महेंद्र भानावत का 87 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। वे केवल एक लेखक, शोधकर्ता या कला समीक्षक नहीं थे, बल्कि लोककला के रंगमंच पर वे स्वयं एक चरित्र थे—एक ऐसा चरित्र जो सदियों तक अपने काम के माध्यम से जीवित रहेगा।
गवरी की गूंज में एक युग का अवसान
डॉ. भानावत ने अपनी पूरी ज़िंदगी लोकनाट्य को समर्पित कर दी। गवरी, भवाई, रम्मत, तमाशा, कठपुतली—राजस्थान की हर कला विधा में उन्होंने अपनी लेखनी की छाप छोड़ी। उनके शोधों ने गहरी नींव डाली कि गवरी केवल एक नृत्य या लोकनाट्य नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक यात्रा है, जो मानव सभ्यता के मूल संघर्षों, प्रकृति के प्रति श्रद्धा और सांस्कृतिक धरोहरों की सुरक्षा का प्रतीक है।
वे खुद कहते थे—
“गवरी केवल भीलों का नृत्य नहीं, यह उन देवताओं की गाथा है जो जंगलों में बसे, धरती को सींचा, और संस्कृति को पीढ़ी-दर-पीढ़ी जिंदा रखा।”
आज जब वे खुद अनंत की यात्रा पर निकल पड़े हैं, तो लगता है जैसे गवरी के डेरों में से कोई एक बुजुर्ग विदा हो गया हो। वह बुजुर्ग, जिसने अपने जीवन का हर क्षण इस परंपरा की रक्षा में लगा दिया।
कलम से रचे गए अमर पात्र
उन्होंने मीरा के जीवन पर “निर्भय मौरा” जैसी पुस्तक लिखी, जिसमें ऐसे तथ्य समेटे जो अब तक किसी ने नहीं देखे थे। 10,000 से अधिक लेख और 12 से ज्यादा पुस्तकों में आदिवासी जीवन और संस्कृति को शब्दबद्ध किया। उनकी किताबों को देखकर लगता है कि उन्होंने केवल लोककला पर नहीं लिखा, बल्कि लोककला को जिया।
वे लेखन में सोते थे, लेखन में जागते थे। उनके शब्दों में राजस्थान की मिट्टी की महक थी, नाचते हुए पांवों की थिरकन थी, और कठपुतलियों की डोर को संभालने वाले हाथों की मेहनत थी।
शोध जिसका हर पृष्ठ इतिहास बना
उनके शोध प्रबंधों ने साबित किया कि राजस्थान की लोकनाट्य परंपराएं सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव, आध्यात्मिक उत्थान और सांस्कृतिक संरक्षण का माध्यम रही हैं। जब पहली बार उन्होंने गवरी पर शोध किया तो आलोचक नागेंद्र ने कहा था—
“गवरी पर शोध? यह तो एक निबंध का भी विषय नहीं!”
लेकिन भानावत ने इस पर महाग्रंथ लिख दिया।
उनका मानना था—
“लोककला वह आईना है जिसमें समाज अपने असली रूप में दिखता है। जो इसे समझ ले, वह इतिहास रच सकता है।”
अनंत यात्रा की विदाई बेला
बुधवार को जब उनकी अंतिम यात्रा उदयपुर से मोक्षधाम के लिए निकली, तो ऐसा लगा जैसे कोई बुजुर्ग गवरी कलाकार अपना आखिरी अभिनय करके मंच छोड़कर जा रहा हो। लेकिन भानावत कभी विदा नहीं होंगे। उनकी किताबों के पन्नों में, लोक कलाकारों की थिरकन में, और राजस्थान के जनजातीय उत्सवों की हर धुन में वे हमेशा मौजूद रहेंगे।
“माटी के महकते बोलों में,
सदियों तक जीवित रहेगा,
एक गवरी का साधक,
जो अब अनंत नृत्य में रम गया।”
श्रद्धांजलि!
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