सैयद हबीब, उदयपुर
उदयपुर, 2025 में नहीं… अब भी वहीं खड़ा है, जहां साल 2000 में था। फर्क सिर्फ इतना है कि तब पहाड़ी एक तरफ से कटी थी, अब दोनों तरफ से कटी हुई है – और बीच में सेल्फी पॉइंट बन चुका है!
यूडीए (उदयपुर विकास प्राधिकरण) ने हाल ही में छुट्टी के दिन भी काम किया — वाह! यानी अब प्रकृति बचाने का काम वीकेंड प्रोजेक्ट बन गया है। एकदम फिटनेस फ्रीक्स की तरह – संडे-संडे डिटॉक्स, मंडे को फिर वही टॉक्सिक लाइफस्टाइल। सुखेर और मोरवानिया की पहाड़ियों पर रविवार-सोमवार को हुई कार्रवाई से ये ज़रूर साबित हुआ कि मशीनें जितनी भारी थीं, पर्यावरण की चिंता उतनी हल्की।
17 पोकलेन, 10 जेसीबी, 11 डंपर… लगता है कोई फिल्म की शूटिंग नहीं, बल्कि ‘विकास का महायज्ञ’ चल रहा था। फर्क बस इतना कि इसमें आहुति धरती की दी जा रही थी – और प्रसाद किसी बिल्डर या रिसॉर्ट मालिक को मिलने वाला था।
पच्चीस साल से बहस वहीं की वहीं – बस होटल बढ़ गए, पेड़ घट गए।
2001 में अखबारों में “झील बचाओ आंदोलन” छपता था, अब उसमें “संपादकीय” की जगह “स्पॉन्सर्ड” लिखा होता है। तब पर्यावरण प्रेमियों की आवाज़ दबती थी, अब उसकी जगह ड्रोन कैमरा उड़ते हैं – ताकि पहाड़ी काटते वक्त एरियल व्यू भी मिल सके।
कुछ मीडिया समूहों ने मुद्दा उठाया – और जब तक उनके मालिकों को ‘होटल के लिए व्यू’ नहीं मिल गया, तब तक वो मुद्दा जिंदा भी रहा। फिर मुद्दा फ्रेम से बाहर हो गया, और फ्रेम में नया रिसॉर्ट आ गया।
नियम बने, लेकिन लागू नहीं हुए – क्योंकि नियमों को लागू करने से विकास रुकता है, और मुनाफा कम होता है।
नक्शे तो थे, लेकिन उन पर सिर्फ रेखाएं खिंची थीं – जो तय करती थीं कि किसके हिस्से में पहाड़ी आएगी और किसके हिस्से में झील का किनारा। इको-फ्रेंडली का नारा इतना पुराना हो गया है कि अब शायद किसी रिसॉर्ट के नाम में ही शामिल कर लिया जाए – “Eco-Havoc by the Lake”।
सवाल ये नहीं कि यूडीए की कार्रवाई हुई… सवाल ये है कि ये कार्रवाई कब तक टिकेगी?
क्योंकि बीते सालों में ऐसे कितने ही “ताबड़तोड़” एक्शन हुए, और फिर “तरीबात के तहत” वहीं निर्माण पूरे हुए। ये सिस्टम भी अजीब है – पहले “रोक लगती है”, फिर “मुआवजा मिलता है”, और फिर “री-एप्रूव हो जाता है”।
रूपसागर, फूटा तालाब, गोवर्धन सागर – इन सबकी हालत अब ऐसी हो गई है जैसे बीमार बुज़ुर्ग – इलाज भी चल रहा है, एक्स-रे में कुछ दिख नहीं रहा, लेकिन बीमारी बढ़ती ही जा रही है।
प्रकृति ने अगर हिसाब चुकता किया, तो सिर्फ रिसॉर्ट ही नहीं डूबेंगे, बल्कि वो ‘सनसेट केप्चर’ करते लोग भी साथ बह जाएंगे।
क्लाइमेट चेंज, लैंडस्लाइड, फ्लैश फ्लड – ये सब अब सिर्फ भूगोल की किताबों में नहीं रहेंगे, बल्कि आपके हॉलिडे पैकेज में ‘एक्स्ट्रा चार्ज’ के साथ मिलेंगे।
अंत में एक सुझाव – अगर पहाड़ काटना ही है, तो कम से कम उस पर “विकास स्मारक” तो बना दो।
और अगर झील को रिसॉर्ट के स्वीमिंग पूल में बदलना ही है, तो नाम रख दो – “Lakeview Memories – तब और अब”। ताकि जब बीस साल बाद फिर कोई यही रिपोर्ट पढ़े, तो उसे समझ आ जाए कि विकास की असली परिभाषा क्या होती है — जितनी तेजी से हो सके, प्रकृति से जितना ले सकते हो, उतना ले लो।
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