तो जनाब, ईद की सौगात के नाम पर ‘सौगात-ए-मोदी’ किट आई है। बीजेपी, जिस पर मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के आरोप लगते रहे हैं, अब वंचित मुसलमानों के लिए दरियादिली दिखा रही है। कहने को 32 लाख मुसलमानों को यह किट दी जा रही है, लेकिन सवाल यह है कि क्या बीजेपी वाकई मोहब्बत की दुकान खोलने जा रही है, या फिर यह सब कुछ बिहार चुनावों से पहले का महज राजनीतिक लॉलीपॉप है?
बीजेपी के तमाम नेता, जिनके भाषणों में ‘गोली मारो सालों को’ और ‘कटे तो बटेंगे’ जैसे बयान गूंजते थे, क्या अब नफरत की राजनीति छोड़ देंगे? क्या औरंगजेब और मुगल इतिहास की आड़ में मुसलमानों को निशाना बनाने का खेल बंद होगा? अगर हां, तो यह बदलाव स्वागत योग्य होगा, लेकिन क्या इतिहास हमें ऐसा मानने की इजाजत देता है?
चुनावी सौगात या बदलाव की बयार?
बिहार में मुस्लिम आबादी 17% के करीब है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि बीजेपी का असल मकसद मुसलमानों को अपने पाले में करना नहीं, बल्कि उन्हें अपने खिलाफ एकजुट होने से रोकना है। ‘सौगात-ए-मोदी’ इस रणनीति का ही हिस्सा लग रही है।
बीजेपी का हिंदुत्व कार्ड कोई छिपी बात नहीं। पांच दशकों से यह पार्टी ध्रुवीकरण की राजनीति करती आई है। अब अगर यह प्रेम और सौहार्द की बातें कर रही है, तो क्या यह सत्ता का मोह है या वाकई कोई अंतरात्मा की आवाज? विपक्षी नेता इसे ‘राजनीतिक पाखंड’ करार दे रहे हैं।
500 रुपये की किट से बदल जाएगा मन?
इस ‘सौगात’ में क्या है? सूट, कुर्ता-पायजामा, दाल-चावल, तेल, चीनी, सेवई, खजूर और मेवे। कीमत? ₹500-₹600! लेकिन क्या मुसलमानों की असल समस्याएं इतनी छोटी हैं कि एक किट से हल हो जाएं? मुसलमानों की सबसे बड़ी समस्याएं हैं—शिक्षा, रोजगार और सुरक्षा। क्या बीजेपी सरकार मुसलमानों को सच्ची समानता और सुरक्षा देने को तैयार है, या फिर यह सिर्फ एक बार फिर चुनावी स्टंट है?
विपक्ष के तीखे वार
पप्पू यादव ने सीधे सवाल दागा—”ये राजनीति है या हृदय परिवर्तन?”
कांग्रेस सांसद रंजीत रंजन ने तंज कसा—”अगर इतनी मोहब्बत है, तो बिहार के बेरोजगारों को नौकरी क्यों नहीं देते?”
अखिलेश यादव ने इसे बीजेपी की मजबूरी बताया—”भाजपा एक वोट के लिए कुछ भी कर सकती है।”
कीर्ति आजाद ने बीजेपी को ‘मगरमच्छ की मुस्कान’ वाला बताया, जो दिखावे में मुस्कुराता है, लेकिन निगलने से परहेज नहीं करता।
मोदी ब्रांड मोहब्बत
बीजेपी के नेता इसे मोदी की ‘सबका साथ, सबका विकास’ की नीति का हिस्सा बता रहे हैं। लेकिन असली सवाल यह है कि जिस पार्टी की राजनीति ही ध्रुवीकरण पर टिकी हो, क्या वह वाकई मोहब्बत का पैगाम दे सकती है?
मुसलमानों को यह फैसला करना होगा कि यह ‘सौगात-ए-मोदी’ सच में सौगात है या फिर ‘सियासी झुनझुना’, जिसे बजाकर उनकी वोटों की ताकत को कमजोर किया जा रहा है। आखिर मोहब्बत की दुकान अगर वाकई खुल रही है, तो क्या नफरत का गोदाम भी बंद होगा?
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