पहलगाम में 26 निर्दोष, निहत्थे लोगों की जान सिर्फ गोलियों से नहीं ली गई — उनके भीतर के ‘इंसान’ को भी मारने की कोशिश की गई। आतंकियों ने धार्मिक पहचान पूछकर लोगों की जान ली। लेकिन क्या उनका मकसद सिर्फ जान लेना था?
या… वो हमारे दिलों में ज़हर घोलना चाहते थे?
क्या वे चाहते थे कि हम एक-दूसरे से डरने लगें? शक करें? नफरत करें?
और अगर हम ऐसा करने लगे — तो क्या फर्क रह जाएगा हममें और उनमें?
आज सोशल मीडिया पर गुस्से की आंधी है।
कुछ लोग हथियार नहीं, पर शब्दों से जंग छेड़ चुके हैं —
“अब और नहीं सहेंगे”, “अब सबक सिखाना होगा” जैसी बातें ट्रेंड कर रही हैं।
लेकिन…क्या आप समझ रहे हैं कि यह वही ‘क्रिया’ है, जिसकी ‘प्रतिक्रिया’ वे चाहते थे?
अगर पहलगाम की दरिंदगी के बाद किसी मस्जिद के बाहर हंगामा या किसी मौलवी को सिर्फ इसलिए पीटा जाता है क्योंकि वो मुसलमान है…।
तो क्या यह आतंकियों की ‘आत्मा’ को और मज़बूत नहीं कर रहा?
रुकिए… और सोचिए।
क्या वो केवल बंदूक से मारना चाहते थे?
या फिर हमारे ज़हन में नफरत बोकर हमें ही एक-दूसरे का दुश्मन बनाना?
क्योंकि जब हम एक-दूसरे को शक की निगाह से देखने लगते हैं,
तो वो बिना कुछ किए जीत जाते हैं।
लेकिन यही तो भारत है साहब —
जहां जलियांवाला बाग के बाद भगत सिंह भी पैदा होता है।
जहां गोधरा की आग के बाद भी दंगे रोकने के लिए इंसानों की दीवारें बनती हैं।
जहां 26/11 के बाद भी मुंबई फिर मुस्कुराना सीखती है।
अगर कहीं कोई मौलाना मारा गया,
तो कहीं एक हिंदू युवक ने अपने मुस्लिम पड़ोसी को अपने घर में छुपा कर जान बचाई।
कहीं मंदिर के पुजारी ने मस्जिद के इमाम को पानी पिलाया।
क्योंकि हम भारत हैं।
यहां नफरत कुछ घंटों की होती है, मोहब्बत सदियों की।
और जहां तक पाकिस्तान की बात है…
वो देश जो दशकों से आतंक की खेती करता आया है,
अब पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस रहा है।
भारत ने अगर तय कर लिया कि पानी नहीं जाएगा —
तो ये बुलेट से नहीं, बूंद से जवाब होगा।
इस बार ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ नहीं, ‘डिप्लोमैटिक स्ट्राइक’ होगी।
हम युद्ध नहीं, बुद्ध का रास्ता अपनाएंगे।
और जब भारत मौन रहकर प्रहार करता है,
तो दुनिया सुनती है, और दुश्मन कांपता है।
तो अब फैसला आपको करना है —
आप आतंकवाद के खिलाफ हैं?
या फिर आतंकियों की सोच के साथ?
क्योंकि अगर आपने अपने पड़ोसी को शक की निगाह से देखा,
तो आप उसी मकसद को मजबूत कर रहे हैं
जिसके लिए पहलगाम में गोलियां चली थीं।
हम ग़मगीन हैं, लेकिन टूटे नहीं हैं।
हम गुस्से में हैं, लेकिन होश में हैं।
हम घायल हैं, लेकिन घुटनों पर नहीं हैं।
हम वो देश हैं जो ताज महल की मीनारों में सिर्फ प्रेम नहीं,
बल्कि सहनशीलता और धैर्य की ईंटें भी जोड़ता है।
हम वो देश हैं जो शहीदों की चिताओं पर दीप जलाता है,
जो दुश्मन की नफरत का जवाब इंसानियत से देता है।
तो आतंकियों का मकसद पूरा हो गया?
नहीं जनाब, उनका मकसद तब पूरा होता जब हम एक-दूसरे से नफरत करना सीख जाते।
लेकिन हम तो वो लोग हैं,
जो “ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम” गाते हैं,
जो हर मज़हब के त्योहार पर एक-दूसरे के घर मिठाइयां लेकर जाते हैं।
अब फैसला आपका है —
आप एक ज़िम्मेदार भारतीय बनेंगे या कट्टरपंथ का हिस्सा?
क्योंकि देश तभी जिएगा… जब हम साथ जिएंगे।
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