
झालावाड़।
राजस्थान के झालावाड़ जिले के मनोहरथाना ब्लॉक के पीपलोदी गांव में शुक्रवार की सुबह जैसे मौत का पैगाम लेकर आई। सरकारी स्कूल की एक बिल्डिंग की छत भरभराकर गिरी और उसके नीचे दब गए मासूम सपने। सातवीं क्लास के 35 बच्चे उस कमरे में बैठे थे, उनमें से छह बच्चों ने मौके पर ही दम तोड़ दिया, जबकि 29 से ज्यादा अब भी जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं।

यह महज़ एक इत्तेफाक नहीं है, यह हादसा भी नहीं है – यह संस्थागत लापरवाही की एक और भयावह मिसाल है। सरकारी स्कूल की इमारत, जो बच्चों की पढ़ाई का मंदिर होनी चाहिए, कब्रगाह बन गई। सवाल यह उठता है कि—
क्या इस स्कूल की बिल्डिंग का पहले कोई स्ट्रक्चरल ऑडिट हुआ था?
अगर भवन जर्जर था, तो बच्चों को क्यों अंदर बिठाया गया?
मानसून की सक्रियता के बीच क्यों नहीं की गई कोई सतर्कता?
शिक्षकों की ज़िम्मेदारी तय होगी या नहीं?
इन सवालों के जवाब अभी मलबे में ही दबे हैं – जैसे उन बच्चों की कापियां, बैग और अधूरे सपने।

गांव वालों की मानवता, सिस्टम की बेबसी
हादसे के बाद जब चीखें गूंजीं तो सबसे पहले गांव के लोग दौड़े। अपने हाथों से ईंटें हटाईं, रोते-बिलखते मासूमों को निकाला। कोई पिता अपने बेटे को खोज रहा था, कोई बहन अपने भाई की शर्ट को पहचान कर फूट-फूट कर रो पड़ी। उस मलबे में मानवता जिंदा थी।
स्थानीय अस्पताल में डॉक्टरों की कमी थी। प्राथमिक उपचार में लापरवाही की खबरें भी आईं। गंभीर घायलों को जिला अस्पताल रेफर किया गया, लेकिन सवाल ये भी है कि क्या इन स्कूलों को सुरक्षा देने की कोई ठोस प्रणाली हमारे पास है?
“स्कूल” या “सजा” – गरीब बच्चों के लिए?
गांवों में सरकारी स्कूलों की हालत किसी से छिपी नहीं है। टूटती छतें, दरारें भरी दीवारें, बिना शौचालय या पानी की सुविधा वाले स्कूल आज भी भारत की ग्रामीण शिक्षा व्यवस्था का सच हैं। ये हादसा उसी सड़े हुए सिस्टम का परिणाम है, जो हर साल शिक्षा बजट तो पेश करता है, मगर ज़मीनी हकीकत नहीं बदलता।
क्या होता अगर ये हादसा किसी प्राइवेट स्कूल में होता? क्या सरकार की प्राथमिकता तब भी इतनी सुस्त होती?
हादसे के बाद नेताओं के शोक संदेश जरूर आ रहे हैं – “हम दुखी हैं”, “यह अपूरणीय क्षति है”, “जांच के आदेश दे दिए गए हैं” जैसी घिसी-पिटी लाइनें चलेंगी, मगर कार्रवाई शायद ही कभी ज़मीनी स्तर पर पहुंचे।
ये लाशें इतिहास नहीं, व्यवस्था की गवाही हैं
ये सिर्फ छह मासूमों की मौत नहीं है, ये हमारी व्यवस्था की हत्या है। ये बच्चों की लाशें हर भारतीय नागरिक से सवाल पूछ रही हैं –”क्या गरीब के बच्चे पढ़ाई का हक रखते हैं या मौत का वारंट?”
जब तक हम शिक्षा को “अधिकार” नहीं, “जिम्मेदारी” नहीं, बल्कि एक “औपचारिकता” समझते रहेंगे – ऐसे हादसे दोहराए जाते रहेंगे। मलबे से निकले बच्चे भले जिन्दा बच जाएं, लेकिन उस पल में उनकी मासूमियत, भरोसा और भविष्य – सब कुछ दम तोड़ चुका होता है।
अब तक 5 मृतक बच्चों की पहचान
हादसे में पायल (14) पुत्री लक्ष्मण, प्रियंका (14) पुत्री मांगीलाल, कार्तिक (8) पुत्र हरकचंद, हरीश (8) पुत्र बाबूलाल, मीना रेदास की जान गई है। एक बच्चे की पहचान नहीं हुई है।
9 घायल झालावाड़ रेफर
वहीं, कुंदन (12) पुत्र वीरम, मिनी (13) पुत्र छोटूलाल, वीरम (8) पुत्र तेजमल, मिथुन (11) पुत्र मुकेश, आरती (9) पुत्री हरकचंद, विशाल (9) पुत्र जगदीश, अनुराधा (7) पिता लक्ष्मण
राजू (10) पुत्र दीवान, शाहीना (8) पुत्र जगदीश को झालावाड़ रेफर किया गया है।
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