– आयड़ जैन तीर्थ में चातुर्मासिक प्रवचन श्रृृंखला शुरू
– आज मनाया जाएगा गुरु पूर्णिमा पर्व
उदयपुर। श्री जैन श्वेताम्बर महासभा के तत्वावधान में तपागच्छ की उद्गम स्थली आयड़ तीर्थ पर रविवार को जैन संतों का चातुर्मास प्रारम्भ हुआ। महासभा के महामंत्री कुलदीप नाहर ने बताया कि सुबह 9 बजे भक्तांबर स्त्रोत पाठ का आयोजन किया गया। उसके बाद 9.15 बजे साध्वी प्रफुल्लप्रभाश्री एवं वैराग्य पूर्णाश्री का चातुर्मासिक मंगल प्रवचन हुआ। बरखेड़ा तीर्थ द्वारिका शासन दीपिका महत्ता गुरू माता सुमंगलाश्री की पट शिष्या परम पूज्य साध्वी प्रफुल्लप्रभाश्री एवं वैराग्य पूर्णाश्री ने अपने प्रवचन में बताया कि प्रत्येक क्रिया काल के अनुसार करनी चाहिये। मनुष्य श्रम करता है, किन्तु उसका फल पाने के लिए काल की उपयुक्ता अनुकूलता जरूरी है। जैसे स्वास्थ्य सुधारने के लिए सर्दी का मौसम अनुकूल माना जाता है, वैसे ही धर्म आराधना और तप साधना के लिए वर्षावास, चातुर्मास का समय सबसे अधिक अनुकूल माना जाता है। संपूर्ण सृष्टि के लिए वर्षाकाल सबसे महत्त्व पूर्ण है। इन महीनों में आकाश से जलधारा बरसकर धरती की प्यास बुझाती हैं, धरती की तपन मिटाती है और भूमि की माटी को नरम, कोमल, मुलायम बनाकर बीजों को अंकुरित करने के लिए अनुकूल बनाती है। इसलिए 27 नक्षत्रों में वर्षाकाल के 10 नक्षत्र और 12 महीने में चातुर्मास के 4 मास ऋतुचक्र की धुरी हैं।
सृष्टि के लिए जीवन दायी है। प्राणी जगत के लिए प्राण संवर्धक और जीवन रक्षक माने जाते हैं। वैदिक व बौद्ध परम्परा में भी इस चार मास काल को चातुर्मास कहा गया है। इस चातुर्मास के लिए परिव्राजक ऋषि, श्रमण, निग्र्रन्थ एक स्थान पर निवास करते हैं। आज भी यह चातुर्मास परम्परा चल रही है। वैदिक संत-महात्मा आज भी वर्षाकाल में चातुर्मास करते हैं, भले ही वे चार महीने के बजाय दो महीने ही एक स्थान पर ठहरते हैं, श्रावण-भाद्रपद तक एक स्थान पर रुकते हैं। जनता को धर्माराधना, भागवत श्रवण, रामायण पाठ, व्रत उपवास आदि की प्रेरणा देते हैं। जैन परम्परा में आज भी चातुर्मास की यह परम्परा अक्षुण्ण चल रही है। आषाढी पूनम से कार्तिक पूनम तक चार महीने तक पाद बिहारी जैन श्रमण एक ही स्थान पर निवास करते हैं। चातुर्मास में श्रमण-श्रमणियों के एक स्थान पर ठहरने के पीछे दो मुख्य कारण है-पहला कारण-जीवस्था यानि जीव विराधना व हिंसा से बचाव करना।
दूसरा कारण-धर्म आराधना या व्रत-आराधना वर्षाकाल मे जीवों की उत्पत्ति अधिक होती है। जीरॉकी विराधना से बचने के लिए वर्षावास में एक स्थान पर निवास करना यह जैन आगमों मे विधान बताया है। वर्षावास का आध्यात्मिक लाभ आप चातुर्मास उठाने के लिए अपनी मनोभूमि तैयार कीजिए। उस चतुर किसान की तरह, जो बीज बोने से पहले धरती को हल चलाकर मिट्टी को उलट-पुलटकर कोमल कीट रहित बना लेता है जो कि जो बीज बोयेगा वह अच्छी प्रकार उगेगा। आप भी चिन्तन, मनन उपदेश श्रवण तथा श्रद्धा-विश्वासपूर्वक अपनी मनो भूमि तैयार कीजिए। चार मास के इस समय में आप अपने आप को धर्म से जोडिय़े और इन मुख्य बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रित कीजिए. वर्षा काल में जीव की विराधना से बचने के लिए यातायात, प्रवास आदि को सीमित करें। जयणा धर्म की माता है अत: प्रत्येक व्यवहार में जयणा बात बनें। वर्षाकाल ठंडक और तरी का मौसम है। मन के भीतरी वातावरण को शीतल बनाइए। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि की उग्रता, उष्णता को शांत करने का प्रयास कीजिए।
चार महिने रात्रि भोजन का त्याग करें। स्वाध्याय, ध्यान, जप, मौन, स्वाद-त्याग और एकासन, उपवास आदि तथ की आसपाना करें। – गुरु पूर्णिमा पर्व आज मनाया जाएगा जैन श्वेताम्बर महासभा के अध्यक्ष तेजसिंह बोल्या ने बताया कि 3 जुलाई सोमवार को गुरु पूर्णिमा के अवसर साध्वीजी का गुरु हमारे मार्ग दर्शक विषय पर विशेष प्रवचन होगा। वही गुरु गौतम विषय पर प्रतियोगिता का आयोजन किया जाएगा। उन्होंने बताया कि रविवार से प्रतिदिन चातुर्मासिक प्रवचन सुबह 9.15 बजे से होंगे।
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