मेवाड़ की राजनीति में महिला नेतृत्व का सूना पड़ता मंच : क्या अगली गिरिजा या किरण तैयार है?

उदयपुर, वह ऐतिहासिक शहर जहां से कभी डॉ. गिरिजा व्यास और किरण माहेश्वरी जैसी सशक्त महिला नेताओं ने अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की, आज एक गहरे विचार की मांग कर रहा है। इन दोनों ने संसद और विधानसभा दोनों में न सिर्फ मेवाड़ बल्कि पूरे राजस्थान की आवाज़ को सम्मान के साथ बुलंद किया। पर आज जब ये दोनों ही नहीं रहीं, तब सवाल यह उठता है कि क्या हमारी राजनीति ने कोई ऐसी दूसरी महिला नेता तैयार की है जो उनकी विरासत को आगे ले जा सके?

राजनीतिक परिदृश्य पर नज़र डालें तो बीते तीन दशकों में नगर पालिका से लेकर नगर निगम तक कई महिलाएं राजनीति में आईं। पार्षद बनीं, संगठन से जुड़ीं, कभी मंच पर दिखीं, कभी तस्वीरों में लेकिन राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर कोई प्रभाव छोड़ने में नाकाम रहीं।

गिरिजा व्यास की भाषाई सौम्यता और सामाजिक सरोकारों में गहरी पैठ, और किरण माहेश्वरी की सांगठनिक निपुणता व जनसंवाद की शैली आज भी आदर्श मानी जाती है। वे महिलाएं थीं जिन्होंने अवसर नहीं मांगे, बल्कि मौके मिलने पर उन्हें सार्थक किया। उन्होंने यह भी साबित किया कि राजनीति का अर्थ सिर्फ सत्ता नहीं, बल्कि सेवा, दृष्टि और संवेदना भी है।

आज जब हम उदयपुर की मौजूदा महिला नेताओं की सूची बनाते हैं, तो रजनी डांगी, किरण जैन, वंदना मीणा, हंसा माली, अर्चना शर्मा, सुषमा कुमावत जैसे नाम सामने आते हैं। लेकिन इनमें से कोई भी अब तक उस ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाया जहां से नीतियों पर असर हो सके। अलका मुंदड़ा ने जरूर महिला मोर्चा का नेतृत्व किया, लेकिन वहां से आगे बढ़ने का मौका नहीं मिला।

कांग्रेस की ओर से नीलिमा सुखाड़िया ने राजनीति में कदम रखा लेकिन बहुत देर से, जब मैदान लगभग सज चुका था। नजमा मेवाफरोश जैसी जुझारू नेता को भी सही समय पर सही जगह नहीं मिली। वहीं दीप्ति माहेश्वरी दो बार विधायक बनने के बावजूद आज भी उस प्रभाव की दूरी तय नहीं कर पाई जो उनकी मां किरण माहेश्वरी की राजनीतिक उपस्थिति का प्रतीक थी। वल्लभनगर से प्रीति शक्तावत एक बार विधायक चुनी गईं और दूसरी बार हार गईं। वे अब भी राजनीति में सक्रिय हैं।

इस परिदृश्य को देखते हुए सवाल सिर्फ एक नहीं, कई हैं :

क्या राजनीतिक दल महिलाओं को सिर्फ टिकट देने तक सीमित रखते हैं?

क्या संगठनात्मक स्तर पर महिलाओं को निर्णय लेने की भूमिका में लाया जा रहा है?

और सबसे अहम, क्या समाज अब भी महिला नेतृत्व को उतना सहज स्वीकार करता है जितना पुरुष नेतृत्व को?

इसका उत्तर शायद इन नेताओं की यात्रा में छिपा है। महिलाएं जब चुनाव लड़ती हैं तो उनके संघर्ष सिर्फ विपक्षी उम्मीदवार से नहीं होते—उन्हें समाज की रूढ़ मानसिकता, परिवारिक अपेक्षाओं और पार्टी की प्राथमिकताओं से भी जूझना पड़ता है।

डॉ. गिरिजा व्यास और किरण माहेश्वरी इसलिए सफल रहीं क्योंकि उन्होंने इस बहुस्तरीय संघर्ष को स्वीकारा और पार किया।

आज आवश्यकता है कि राजनीतिक दल इस मुद्दे पर गंभीर मंथन करें। नेतृत्व सिर्फ भाषण देने और पोस्टर पर छपने तक सीमित नहीं होना चाहिए। नेतृत्व वह हो जो नीति बनाए, समाज की नब्ज़ को समझे और संसद/विधानसभा में जनहित की बात कर सके।

इसके लिए जरूरी है कि महिला नेताओं को शुरू से ही प्रशिक्षित किया जाए, उन्हें मंच दिया जाए, और सबसे अहम—उन पर विश्वास किया जाए।

समाज की भी ज़िम्मेदारी है कि वह महिला नेताओं को संदेह या परंपरा के तराजू पर तौलने की बजाय उनकी योग्यता और दृष्टिकोण को प्राथमिकता दे।

यह सवाल अब महज़ राजनीतिक नहीं है। यह सामाजिक चेतना, लोकतांत्रिक जिम्मेदारी और नारी स्वाभिमान का भी प्रश्न है।

क्या मेवाड़ अगली गिरिजा व्यास या किरण माहेश्वरी के लिए तैयार है? या फिर हमें एक और पीढ़ी तक इंतज़ार करना होगा?

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