
उदयपुर, थाना फतहनगर, वृत्त मावली
फतहनगर की एक ठंडी सुबह
फरवरी की एक धुंधली सुबह… पीपली चौक की गलियों में अजीब सी खामोशी थी। मोहल्ले की 70 वर्षीय चांदी बाई, जो हमेशा अपने गहनों के साथ ढोल बजाती नज़र आती थीं, उस दिन कहीं दिखाई नहीं दीं।
सुंदरलाल की आंखों में बेचैनी थी। “मासी पिछले 24 घंटे से दिखी नहीं हैं,” उसने कांपती आवाज़ में पुलिस स्टेशन में गुमशुदगी रिपोर्ट लिखवाई। तारीख थी 23 फरवरी 2025।
लेकिन फतहनगर पुलिस के रिकॉर्ड में यह महज़ एक और गुमशुदगी थी — जब तक दो महीने बाद मामला एक ऐसे मोड़ पर नहीं पहुंचा जिसने पूरे मावली वृत्त को हिला कर रख दिया।
एंट्री — असिस्टेंट SP मनीष कुमार
मार्च का अंत… केस फाइल अब एएसपी मनीष कुमार के हाथों में थी। युवा, तेज़ दिमाग, तकनीकी जानकार और अपराधी के दिमाग को उसकी आंखों से पढ़ लेने वाला अधिकारी।
मनीष ने तय किया — यह केस किताबों के पन्नों में नहीं, अपराधी के ज़हन में सुलझेगा।
“अगर बॉडी नहीं है, तो मर्डर कैसे साबित करोगे?” – ये सवाल नहीं, चुनौती थी, जो मनीष ने खुद से की।
सुराग का पहला टुकड़ा — सिल्वर वैन
आखिरी बार चांदी बाई को उनके घर के पास एक सिल्वर रंग की वैन में जाते देखा गया था। कैमरे नहीं थे, लेकिन आंखों के गवाह थे। एक नाम सामने आया — रमेश लौहार।
पुलिस रिकॉर्ड खंगाला गया। पहले से बलात्कार के केस में आरोपी रह चुका रमेश, अब मुख्य संदिग्ध था। उसकी वैन… उसकी चुप्पी… और उसकी नज़रें, जो लगातार नीचे झुकी थीं — सब कुछ चीख-चीखकर कह रहा था, “इसने कुछ छुपा रखा है।”
दृष्यम की स्क्रिप्ट, असल ज़िंदगी की वारदात
पुछताछ में रमेश का चौंकाने वाला इक़बाल सामने आया। उसने जुर्म कबूल किया।
“मैंने दृष्यम फिल्म देखी थी… कई बार। और क्राइम पेट्रोल भी… मुझे लगा, अगर बॉडी नहीं मिलेगी, तो कोई केस नहीं बनेगा।”
9 जनवरी 2025 — रमेश के घर में उसके भाई का बारहवां था। उसी दिन चांदी बाई ढोल बजाने आई थीं। उनके शरीर पर लदे गहनों ने रमेश के अंदर का लालच जगा दिया। वहीं से जन्म हुआ एक खूनी योजना का।
22 फरवरी की रात — प्लान ऑन
रमेश ने चांदी बाई से कहा, “गुन्दली गांव में रातीजगा है, ढोल बजाने चलो।” भोली चांदी बाई वैन में बैठ गईं।
चार घंटे तक वैन शहर की गलियों में घूमती रही — चांदी बाई को अंदाजा तक नहीं था कि मौत उसके बराबर वाली सीट पर बैठी है।
मोबाइल स्विच ऑफ। रास्ते में पत्नी को झूठ — “वैन फंसी है, निकालने जा रहा हूं।” जीजा को भी कवर स्टोरी — “सेटिंग कर रखी है, घरवालों को मत बताना।”
रात गहराई… और अंधेरे में रमेश ने लोहे के पाने से वार किया। चांदी बाई की मौत हो गई।
लाश की राख और ‘दृश्यम’ का क्लाइमैक्स
रमेश ने बॉडी को डंपिंग यार्ड ले जाकर कचरे में फेंका। पेट्रोल डाला… आग लगाई। फिर जली हुई हड्डियाँ, दांत, अधजले हिस्से उठाकर घोसुण्डा बांध में फेंक दिए।
उसने जानवरों की हड्डियाँ भी साथ में फेंकीं — ताकि पुलिस को गुमराह किया जा सके, और डीएनए रिपोर्ट कुछ न साबित कर सके।
उसका मानना था — “बॉडी नहीं, तो क्राइम नहीं।”
पुलिस की जवाबी स्क्रिप्ट — फॉरेंसिक का जवाबी हमला
लेकिन मनीष कुमार ‘विजय सालगांवकर’ नहीं, बल्कि एक असली एएसपी था। डंपिंग यार्ड से जले हुए मानव अवशेष जब्त किए गए।
डीएनए मिलान — चांदी बाई के मकान से लिए गए बालों से मेल खा गया।
मारुति वैन RJ27 UE 0690 जब्त की गई। पूरी वैन को फॉरेंसिक टीम ने पलटा। जले हुए कपड़े, लोहे का पाना, गहनों के पिघले अंश — सब बरामद हुए।
लूट का खुलासा और दुकानदार की गवाही
रमेश ने गहनों को सुनार के पास बेचा, कुछ गला दिए, कुछ खुद रख लिए। पुलिस ने दुकानदार से पूछताछ की। जो गहने बेचे गए थे, उनके बदले खरीदे गए नए जेवर और नगद रकम जब्त की गई।
पायजेब, टोकरियां, गलाया हुआ सोना — सबूतों की शक्ल में पुलिस के सामने आ चुका था।
अदालत से पहले ही हार गया अपराधी
रमेश ने बार-बार यही दोहराया, “मैंने सोचा था, अगर लाश नहीं मिलेगी, तो केस नहीं बनेगा।”
लेकिन पुलिस ने साबित किया — सिनेमा स्क्रीन की चालाकी, असल ज़िंदगी की फॉरेंसिक की आग में जलकर राख हो जाती है।
कैमरे के पीछे की कहानी
इस केस ने पूरे राजस्थान को चौंका दिया। दृष्यम फिल्म से प्रेरित होकर हत्या और लूट करने वाले एक अपराधी ने सोचा कि वह स्क्रीन प्ले लिख रहा है, लेकिन कानून ने उसका क्लाइमेक्स खुद लिखा।
आज रमेश लौहार जेल में है। और चांदी बाई की आत्मा को अब न्याय मिला।
“ये सिर्फ केस नहीं था, बल्कि एक थ्रिलर था — जहाँ एक मंझा हुआ अपराधी भी पुलिस की तकनीक, जिद और सच्चाई के आगे हार गया।”
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