उदयपुर। मेवाड़ की राजनीति में हलचल मच गई है, खासकर जब बात आती है सहानुभूति के कार्ड खेलने की। वल्लभनगर से पूर्व विधायक गजेंद्र सिंह शक्तावत के निधन के बाद उनकी पत्नी प्रीति सिंह शक्तावत ने उपचुनाव में जीत हासिल की। इसी तरह, पूर्व मंत्री किरण माहेश्वरी के निधन के बाद उनकी बेटी दीप्ति माहेश्वरी भी उपचुनाव में सफल रही। इस पृष्ठभूमि में, बीजेपी ने सलूंबर में विधायक अमृतलाल मीणा के निधन के बाद उनकी पत्नी शांता देवी मीणा को उपचुनाव में उतारने का निर्णय लिया है।
सहानुभूति का जाल
सहानुभूति के कार्ड को खेलना राजनीतिक रणनीतियों का एक पुराना तरीका है, और बीजेपी इस बार भी इसे अपनाने में पीछे नहीं है। शांता देवी की पिछली राजनीतिक उपलब्धियों और उनके परिवार की परंपरा के आधार पर, पार्टी ने यह निर्णय लिया। हालांकि, यह ध्यान देने योग्य है कि इस फैसले के खिलाफ कुछ स्थानीय कार्यकर्ताओं की नाराजगी भी सामने आई है। कार्यकर्ताओं की भावनाओं की अनदेखी करके क्या बीजेपी खुद को एक बड़ी चुनौती में डाल रही है?
बाप पार्टी का असर
मेवाड़ी सियासत में बाप पार्टी (भारतीय आदिवासी पार्टी) एक नए तीसरे मोर्चे के रूप में उभर रही है। इस पार्टी ने चौरासी से अनिल कटारा और सलूंबर से जितेश कटारा जैसे दावेदारों के नामों की घोषणा कर दी है। पिछले चुनावों में बाप ने प्रमुख दलों को नुकसान पहुँचाया था, जिससे बीजेपी की रणनीति और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। यदि बीजेपी ने अपने दावेदारों के चयन में सतर्कता नहीं दिखाई, तो बाप पार्टी उनके वोट बैंक में सेंधमारी कर सकती है।
विवाद और चुनौतियाँ
शांता देवी का राजनीतिक इतिहास विवादों से भरा रहा है। उनकी फर्जी मार्कशीट को लेकर उठे सवालों ने उनके नाम को धूमिल किया है। इस मुद्दे ने अमृतलाल मीणा को जेल तक पहुँचाया। ऐसे में, क्या बीजेपी इस विवाद को अपने खिलाफ एक हथियार बनने देगी? यह एक महत्वपूर्ण सवाल है, जिसे चुनावी रणभूमि में विचार करना होगा।
कार्यकर्ताओं का आक्रोश
बीजेपी के प्रमुख दावेदार नरेंद्र मीणा ने अपनी पार्टी के निर्णय के खिलाफ नाराजगी व्यक्त की है। उनका वीडियो संदेश कार्यकर्ताओं के गुस्से और उनकी भावनाओं को स्पष्ट करता है। कार्यकर्ताओं की नाराजगी और उनके आंसू BJP के लिए एक चेतावनी हैं कि यदि इस बार भी उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं की आवाज़ को अनसुना किया, तो परिणाम भयानक हो सकते हैं।
सहानुभूति का कार्ड एक शक्तिशाली हथियार हो सकता है, लेकिन यदि इसे सही तरीके से नहीं खेला गया, तो यह भी आत्मघाती साबित हो सकता है। बीजेपी को चाहिए कि वह स्थानीय कार्यकर्ताओं की भावनाओं का सम्मान करे और अपनी रणनीति को अधिक व्यावहारिक बनाए। सलूंबर की उपचुनाव में संभावनाएँ कई हैं, लेकिन अंततः यह तय करेगा कि बीजेपी अपने कार्यकर्ताओं को कितनी गंभीरता से लेती है।
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