“इज्जत ए शोहरत ए उल्फत ए सब कुछ इस दुनिया में रहता नहीं,
आज मैं हूँ जहां कल कोई और था, ये भी एक दौर है वो भी एक दौर है…”
—साहिर लुधियानवी

साहिर लुधियानवी के इस शेर को अक्सर सुपर स्टार राजेश खन्ना सुनाया करते थे। यह कभी उनकी फिल्मी ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव का बयान था, मगर आज यह पंक्तियाँ उदयपुर बीजेपी कार्यालय की उन तस्वीरों पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं, जो पार्टी के स्थापना दिवस की पूर्व संध्या पर पार्टी के ही फोटोग्राफर और मंझे हुए फोटो जर्नलिस्ट कमल कुमावत ने ली।
यह एक सामान्य राजनीतिक कार्यक्रम था—झंडा फहराया गया, जयघोष हुए, मिठाई बंटी और जिलाध्यक्ष गजपाल सिंह राठौड़ की अगुवाई में कार्यकर्ताओं ने जोश से भागीदारी निभाई। सबकुछ ठीक-ठाक था… या कहें, दिखने में था। लेकिन इन तस्वीरों ने वो कह दिया जो शायद शब्दों में नहीं कहा गया—चेहरों की ग़ैरहाजिरी की कहानी।


इन तस्वीरों में जो मौजूद हैं, वो सक्रियता के प्रतीक बने नज़र आते हैं, मगर जो नज़र नहीं आए—उनकी अनुपस्थिति ही सबसे ज़्यादा ‘मौजूद’ रही।
बीजेपी कार्यालय में जो नेता हर कार्यक्रम के स्थायी किरदार माने जाते थे—न मंच पर, न पृष्ठभूमि में दिखे। कोई बीमारी, कोई मजबूरी या कोई दूर की यात्रा इसका कारण रही हो सकती है, लेकिन राजनीति में अनुपस्थिति भी एक संकेत होती है—और कभी-कभी बहुत बड़ी।
पिछले कुछ सालों में उदयपुर की राजनीतिक हवा में बदलाव की बयार महसूस की जा रही है। पुराने दिग्गजों की जगह नए चेहरों ने ली है। वो जो एक समय ‘पार्टी का चेहरा’ कहे जाते थे, अब जैसे किनारे पर रख दिए गए हैं।
राजनीति में यह कोई नई बात नहीं—मगर जब यह बदलाव तस्वीरों में यूं साफ दिखे, तो महज़ अनुमान नहीं, विश्लेषण की ज़रूरत बन जाता है।


कार्यक्रम में जिलाध्यक्ष की मौजूदगी और कार्यकर्ताओं का उत्साह यह दर्शाता है कि संगठनात्मक ढांचा सक्रिय है, लेकिन हर ढांचे की नींव में वे चेहरे भी होते हैं जो अब परदे के पीछे चले गए हैं। सवाल उठता है—क्या ये चेहरे स्वयं दूर हुए हैं, या उन्हें ‘दूर’ कर दिया गया है?
क्या पार्टी नेतृत्व ने नई प्राथमिकताएं तय कर ली हैं? या पुराने नाम अब उस लय में नहीं रहे जो किसी राजनीतिक मंच के लिए जरूरी मानी जाती है?
यह भी एक दौर है…
राजेश खन्ना जब कहते थे—”आज मैं हूं जहां, कल कोई और था”—तो वह केवल एक सितारे के ढलते समय की बात नहीं कर रहे थे, बल्कि यह एक सार्वकालिक सत्य है। राजनीति भी उसी नियम पर चलती है। यहां कोई ‘हमेशा’ के लिए नहीं होता।
जो कल तक मंच के केंद्र में थे, आज तस्वीरों से बाहर हैं।
जो कभी ‘अभिन्न’ थे, आज ‘अदृश्य’ हैं।
जो कभी जश्न के नायक थे, आज चुप्पी के किरदार बन गए हैं।

उदयपुर बीजेपी कार्यालय की इन तस्वीरों को केवल आयोजन के दस्तावेज़ के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। ये राजनीति के बदलते मिजाज़, शक्ति-संतुलन और आंतरिक समीकरणों की झलक देती हैं।
यह दौर भी बीतेगा, और नया आएगा। शायद फिर से वही पुराने चेहरे लौट आएं, या नए चेहरे ही पहचान बन जाएं।
मगर एक बात तय है—राजनीति में हर तस्वीर कुछ कहती है… और कभी-कभी वो सबसे ज़्यादा कहते हैं, जो तस्वीर में होते ही नहीं।
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