उदयपुर। नेहरू गार्डन पर दस करोड़ रुपए खर्च कर दिए गए। अब उसका लोकार्पण होने वाला है। तस्वीरें आएंगी, लाइटें जगमगाएंगी, और तालियों की गूंज में नेताओं के भाषण होंगे। पर्यटन की दृष्टि से ये सुनने में अच्छा लगता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह शहर सिर्फ सैलानियों के लिए जिएगा, या यहां रहने वाले लोगों की समस्याएं भी किसी एजेंडे में शामिल होंगी?
नेहरू गार्डन की चकाचौंध से पहले ज़रा एमबी अस्पताल की इमरजेंसी के बाहर का नजारा देख लीजिए। बरसात आते ही वहां पानी भर जाता है। उसी पानी में स्ट्रेचर धकेलते अटेंडर, भीगते मरीज और परेशान परिजन। दस साल में यह हालात जस के तस हैं। किसी मंत्री या अधिकारी को कभी उस पानी से गुजरना पड़ता तो शायद अस्पताल के ड्रेनेज सिस्टम की सुध ली जाती।
यह बातें मैं यूं ही नहीं कह रहा। पिछले दिनों पत्रकार ऋषभ जैन के इलाज के दौरान मैंने खुद यह सबकुछ महसूस किया है। जब एक मरीजों को स्ट्रेचर पर पानी भरे गलियारों से ले जाया गया, जब परिजन फाइल और रिपोर्ट लेकर यहां-वहां भागते रहे, तब समझ आया कि असली विकास की ज़रूरत कहां है। जो दर्द मैंने नज़दीक से देखा, शायद वही किसी दिन किसी और के परिवार को झेलना पड़ेगा।
पर्यटन स्थलों पर म्यूजिकल फाउंटेन और फसाड लाइटिंग से शहर की सुंदरता बढ़ेगी, इसमें शक नहीं। मगर ये विकास जनता के असली जख्मों पर सिर्फ मेकअप है। जिस शहर का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल ही बेसिक सुविधाओं से महरूम है, वहां सौंदर्यीकरण किसके लिए किया जा रहा है?
नेताओं और अधिकारियों के लिए अस्पताल की लाइनें सिर्फ कागज़ पर आंकड़े हैं। उन्हें प्राइवेट नर्सिंग होम की एसी रूम्स ही नसीब हैं। असली जनता अब भी पर्ची से लेकर जांच तक घंटों खड़ी रहती है। लेकिन शायद यह तकलीफ़ “बजट घोषणा” का हिस्सा नहीं बनती।
बात साफ है: बीमारी का इलाज नेहरू गार्डन की रंगीन लाइटों से नहीं होगा। मरीज को राहत तभी मिलेगी जब अस्पतालों की व्यवस्था सुधरेगी। पर यह बात समझाने वाला कौन? और सुनने वाला कौन?
बहरहाल, जनता की परेशानियों का जिक्र करने का फायदा कितना है, ये सब जानते हैं। फिर भी, कमियां गिनाने का हक हम रखते हैं। तो आइए, फिलहाल अख़बार के पन्नों पर चमकते नेहरू गार्डन की बातों से खुश हो लीजिए — जब तक कि कोई अपना बीमार होकर एमबी अस्पताल की सच्चाई न दिखा दे।
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