नई दिल्ली। भारत के 50वें चीफ़ जस्टिस संजीव खन्ना का कार्यकाल भले ही छह महीने का रहा, लेकिन इस दौरान उन्होंने कुछ ऐसे फैसले लिए जो लंबे समय तक न्यायपालिका की कार्यशैली, पारदर्शिता और धार्मिक विवादों पर इसकी भूमिका को लेकर चर्चा में रहेंगे। संजीव खन्ना ने न तो मीडिया को इंटरव्यू दिए, न ही मंचों से कोई बड़े भाषण दिए, लेकिन उन्होंने फैसलों से अपनी उपस्थिति का प्रभावशाली परिचय दिया।
धर्म आधारित विवादों पर निर्णायक भूमिका
चीफ जस्टिस संजीव खन्ना की सबसे बड़ी पहचान बनकर उभरे उपासना स्थल कानून और वक़्फ़ कानून से जुड़े फैसले।
1. उपासना स्थल कानून पर अंतरिम रोक :
संभल की जामा मस्जिद और अजमेर की दरगाह पर हिन्दू पक्ष के दावों के बाद देश में मंदिर-मस्जिद विवादों की एक नई लहर खड़ी हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह सवाल था कि क्या 1991 का उपासना स्थल कानून ऐसे मुकदमों को रोकने में सक्षम है?
12 दिसंबर 2024 को जस्टिस खन्ना की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय पीठ ने अंतरिम आदेश में स्पष्ट किया कि जब तक सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर अंतिम निर्णय नहीं ले लेता, तब तक देश की कोई भी अदालत ऐसे मामलों पर सुनवाई या निर्णय नहीं कर सकती। यह फैसला न केवल धार्मिक तनाव को नियंत्रित करने वाला था, बल्कि यह न्यायिक सक्रियता और सामाजिक स्थिरता के बीच संतुलन साधने का प्रयास भी था।
2. वक़्फ़ संशोधन पर केंद्र सरकार को रोका :
वक़्फ़ कानून में किए गए हालिया संशोधनों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दाखिल हुईं। इनमें वक़्फ़ बोर्ड में ग़ैर-मुस्लिमों की नियुक्ति और ‘वक़्फ़ बाय यूजर’ जैसे प्रावधानों को चुनौती दी गई थी।
जस्टिस खन्ना ने इस मामले में भी केंद्र सरकार से जवाब माँगते हुए यह स्पष्ट कर दिया कि इन प्रावधानों को तब तक लागू नहीं किया जाएगा जब तक अदालत इस पर कोई अंतिम आदेश न दे। इसपर केंद्र ने स्वयं अदालत को आश्वस्त किया कि संशोधन लागू नहीं होंगे।
भ्रष्टाचार के मामलों में न्यायपालिका की पारदर्शिता
1. जस्टिस यशवंत वर्मा केस :
दिल्ली हाई कोर्ट के जज यशवंत वर्मा के निवास से कथित नकदी बरामद होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जिस तत्परता से प्रतिक्रिया दी, वह ऐतिहासिक कही जा सकती है।
22 मार्च की रात सुप्रीम कोर्ट ने अपनी जांच रिपोर्ट सार्वजनिक की और ‘इन-हाउस कमेटी’ गठित की। यह कदम इसलिए भी अहम था क्योंकि इससे न्यायपालिका की पारदर्शिता को लेकर भरोसा कायम हुआ।
हालांकि, ‘इन-हाउस कमेटी’ की अंतिम रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक नहीं हुई है, लेकिन चीफ जस्टिस खन्ना ने वह रिपोर्ट प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को सौंपकर मामले की गंभीरता को दर्शाया।
न्यायिक पारदर्शिता की दिशा में बड़ा कदम
जस्टिस खन्ना की अगुआई में 1 अप्रैल को आयोजित फुल कोर्ट मीटिंग में ऐतिहासिक निर्णय लिया गया – सभी सुप्रीम कोर्ट जजों की संपत्ति सार्वजनिक की जाएगी।
पहली बार ऐसा हुआ कि यह निर्णय सिर्फ़ आंतरिक नहीं रहा बल्कि कोर्ट की वेबसाइट पर जजों की संपत्ति घोषित करने की व्यवस्था की गई।
इतना ही नहीं, जस्टिस खन्ना के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी जानकारी दी कि—
कितने जजों की नियुक्ति की सिफारिश हुई,
उनमें कितने नाम सरकार के पास लंबित हैं,
कितने नाम पूर्व या वर्तमान जजों के रिश्तेदारों के हैं,
और उनका जातिगत व धार्मिक विवरण क्या है।
यह कदम न केवल पारदर्शिता की ओर संकेत करता है बल्कि न्यायपालिका में वंशवाद की बहस को भी तर्कों के साथ जोड़ता है।
संवैधानिक मूल्यों की रक्षा
संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को हटाने की मांग करने वाली याचिकाओं को जस्टिस खन्ना की बेंच ने स्पष्ट रूप से खारिज किया। उन्होंने कहा कि ये दोनों शब्द भारतीय लोकतंत्र के मूलभूत स्तंभ हैं और समानता की भावना को मजबूत करते हैं।
राजनीतिक आलोचनाओं के बावजूद संतुलन बनाए रखा
चीफ जस्टिस संजीव खन्ना को कुछ निर्णयों को लेकर कड़ी आलोचना झेलनी पड़ी, विशेष रूप से बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे द्वारा उनके ऊपर ‘धार्मिक गृहयुद्ध भड़काने’ जैसे आरोप लगाए गए। बावजूद इसके, उन्होंने किसी राजनीतिक बयान या जवाब में खुद को शामिल नहीं किया, और न्यायिक मर्यादा का पालन करते हुए केवल कानून के अनुसार कार्य किया।
निचली अदालतों और पुलिस व्यवस्था पर भी सवाल
जस्टिस खन्ना ने उत्तर प्रदेश पुलिस की आलोचना करते हुए एक सिविल विवाद को आपराधिक रंग देने पर राज्य सरकार पर 50 हज़ार रुपये का जुर्माना लगाया। यह निर्णय दर्शाता है कि वे न केवल संवैधानिक मामलों में सक्रिय थे, बल्कि आम नागरिक की सुरक्षा और न्याय तक पहुंच के लिए भी सजग थे।
एक न्यायिक युग की समाप्ति या शुरुआत?
संजीव खन्ना का कार्यकाल छोटा था, लेकिन प्रभावशाली। उन्होंने दिखाया कि चुपचाप, बिना भाषणों के भी न्यायपालिका में सुधार लाए जा सकते हैं।
उनके उत्तराधिकारी पर अब यह जिम्मेदारी है कि पारदर्शिता के जो द्वार खन्ना ने खोले, वे बंद न हों, बल्कि और विस्तृत हों।
संजीव खन्ना एक ‘लो प्रोफाइल’ लेकिन ‘हाई इम्पैक्ट’ जज के रूप में इतिहास में दर्ज होंगे। उन्होंने धार्मिक विवादों को शांत किया, न्यायपालिका को अधिक पारदर्शी बनाया और बिना किसी राजनैतिक दबाव के संवैधानिक मर्यादाओं की रक्षा की। उनका कार्यकाल भले ही छोटा रहा, लेकिन उन्होंने न्यायपालिका की कार्यशैली में गहरी छाप छोड़ी है।
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