
प्रयागराज। संगम की पुण्यभूमि प्रयागराज, जहां गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती की धाराएं मिलती हैं, अब एक और अलौकिक संगम की साक्षी बन गई — संस्कृति, भाषा और आत्मा के एकत्व की। महाकुंभ की पावन बेला में जब तिरुवल्लुवर की प्रतिमा को स्थापित किया गया, तो जैसे उत्तर और दक्षिण भारत के हृदय एक साथ धड़क उठे।
इस ऐतिहासिक अनावरण समारोह में न केवल मूर्ति का अनावरण हुआ, बल्कि एक आध्यात्मिक सेतु भी तैयार हुआ — तमिल और हिंदी भाषाओं के बीच, उत्तर और दक्षिण भारत के बीच, विचारों और आत्माओं के बीच।
तिरुवल्लुवर : जिन्होंने सीमाओं को लांघ दिया
तिरुवल्लुवर, वह संत कवि, जिनके शब्दों ने सदियों से मनुष्यता को राह दिखाई। 1330 दोहों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को समाहित करना — ये केवल साहित्य नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला है। इन पंक्तियों में न कोई संप्रदाय है, न कोई जाति; केवल मानव धर्म है। यही कारण है कि जब वाराणसी के मंडलीय आयुक्त एस. राजलिंगम ने कहा कि “तिरुक्कुरल एक वैश्विक नीतिशास्त्र है”, तो जैसे हर भारतीय हृदय में एक स्वर गूंजा — “ये मेरे भी हैं, तुम्हारे भी, हम सबके हैं।”
एक प्रतिमा, एक प्रतीक, एक प्रेरणा
डीआईजी डॉ. एन. कोलंजी, जिनकी निःस्वार्थ लगन ने इस स्वप्न को साकार किया, उन्होंने जब कहा कि “एक दोहे में सात शब्द और जीवन का सार समाहित है”, तो यह महज वक्तव्य नहीं था — यह उस संस्कार की झलक थी, जो तिरुक्कुरल जैसे ग्रंथों से उपजती है। उनकी ये बात कि “जिसे ईश्वर नहीं कर सकता, वह भी मनुष्य अपने पुरुषार्थ से कर सकता है”, प्रयागराज के उस आकाश में गूंज रही थी जैसे यह संदेश युगों तक अमर रहेगा।
उत्तर और दक्षिण का मिलन – भाईचारे की मिसाल
आर. शफीमुन्ना, ‘हिंदू तमिल दिसाई’ के वरिष्ठ सलाहकार पत्रकार, जब बोले कि “हर धर्म की एक पवित्र पुस्तक होती है, लेकिन तिरुक्कुरल वह ग्रंथ है जिसे हर धर्म स्वीकार करता है”, तो वह एकता की बात नहीं कर रहे थे, वह आत्मिक सत्य को दोहरा रहे थे। प्रयागराज में तिरुवल्लुवर की प्रतिमा केवल तमिलों के लिए नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए है जो सत्य, करुणा और नीति को पूजता है।
एक लंबा संघर्ष, एक स्वप्न की पूर्ति
इस आयोजन की जड़ें वर्षों पुरानी थीं। भाषा संगम, जो पिछले 49 वर्षों से भारत में भाषाओं के पुल के रूप में कार्य कर रहा है, उसने 34 वर्षों से यह प्रयास जारी रखा कि उत्तर भारत की धरती पर भी तिरुवल्लुवर की आत्मा को स्थान मिले। उनकी यह तपस्या आखिरकार हिंदू तमिल दिसाई और डॉ. एन. कोलंजी जैसे अधिकारियों की मदद से फलीभूत हुई।
और इस समारोह में जब रेखा गौड़, स्वर्गीय के.सी. गौड़ की पत्नी को सम्मानित किया गया, तो जैसे एक यज्ञ की पूर्णाहुति हुई — यह सम्मान एक व्यक्ति का नहीं, उस तपस्वी चेतना का था जिसने संघर्ष को साधना बनाया।
प्रधानमंत्री मोदी का योगदान – एक भाषायी सेतु
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ‘काशी तमिल संगमम’ में तिरुक्कुरल के हिंदी अनुवाद का लोकार्पण, इस कड़ी का महत्वपूर्ण पड़ाव था। उनकी यह पहल, केवल अनुवाद नहीं, बल्कि भाषाओं के बीच सांस्कृतिक संवाद की भूमि तैयार करने की कोशिश थी।
तिरुवल्लुवर : भारत के हर कोने के लिए
आज जब देश का हर कोना प्रगति की ओर बढ़ रहा है, तो यह आवश्यक है कि हमारी आध्यात्मिक जड़ें भी उतनी ही मज़बूत हों। तिरुक्कुरल जैसे ग्रंथ हमें याद दिलाते हैं कि प्रगति केवल तकनीक से नहीं, बल्कि नीति, करुणा और सत्य के पथ पर चलने से होती है।
इसलिए डॉ. कोलंजी का यह प्रस्ताव कि “तिरुक्कुरल को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित किया जाए”, या यह कि “हर छात्र को कम से कम एक दोहा पढ़ाया जाए”, यह केवल सुझाव नहीं, बल्कि एक संस्कार आंदोलन है, जो राष्ट्र की आत्मा को जागृत कर सकता है।
समापन : संगम पर सजी संस्कृति की सरिता
इस भव्य अनावरण समारोह में जब दीप प्रज्वलित हुए, जब अतिथियों को तिरुवल्लुवर की लघु मूर्ति और हिंदी तिरुक्कुरल पुस्तक भेंट की गई, तो वह क्षण केवल एक औपचारिकता नहीं थी। वह क्षण था — संस्कृति के दीप से आत्मा को रोशन करने का।
यह प्रयागराज की मिट्टी पर तिरुवल्लुवर की प्रतिमा नहीं, बल्कि भारत माता की छाती पर अंकित एक सांस्कृतिक तिलक है। यह उस भारत की तस्वीर है, जो भाषाओं से नहीं बंटता, बल्कि भाषाओं से जुड़ता है।
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