
नई दिल्ली। कराची की अंधेरी गलियों से निकला एक नाम इन दिनों फिर सुर्खियों में है, लेकिन इस बार वजह कोई अपराध नहीं बल्कि हिंदी फिल्म ‘धुरंधर’ है, जिसमें अक्षय खन्ना द्वारा निभाया गया रहमान का किरदार दर्शकों का ध्यान खींच रहा है। फिल्म में दिखाया गया रहमान एक खतरनाक, अस्थिर और रक्तपिपासु अपराधी के रूप में उभरता है, और दिलचस्प बात यह है कि यह चित्रण शहर के उस वास्तविक रहमान डकैत की याद दिलाता है जिसकी दहशत कराची में दशकों तक महसूस की जाती रही। फिल्म के रिलीज होते ही यह सवाल उठने लगा है कि क्या निर्माताओं ने सचमुच उस कुख्यात गैंगस्टर की छाया को पर्दे पर दोहराया है, या यह महज एक काल्पनिक रूपांतरण है जिसे दर्शकों के लिए नाटकीय बनाया गया है। लेकिन यदि दोनों को एक साथ रखकर देखा जाए तो यह साफ नजर आता है कि सिनेमाई परदे और वास्तविकता के बीच की दूरी उतनी भी नहीं है जितनी मानी जाती है।
असल रहमान डकैत की कहानी एक गरीब बस्ती से शुरू होती है, जहां तेरह साल के एक लड़के ने मामूली झगड़े में पहली बार छुरा घोंपकर अपराध की दुनिया में कदम रखा था। यही घटना उसके भविष्य की दिशा बन गई और धीरे-धीरे उसकी हिंसा पूरे शहर का हिस्सा बनने लगी। मामा की हत्या ने उसकी मानसिकता को और कड़ा किया और वह गैंगवॉर में खुलकर शामिल हो गया। कराची के जिन इलाकों में रात को लोग घर से निकलने से डरते थे, वहां रहमान का नाम किसी अंधे साये की तरह गूंजता था। उस पर दर्ज मामलों में ड्रग्स की तस्करी, अवैध हथियारों का कारोबार, जमीन पर कब्ज़ा, रंगदारी और कत्लों की लंबी फेहरिस्त शामिल थी। 2006 में गुप्त अभियान में पकड़े जाने के बाद रहमान ने 79 संगीन अपराधों की कबूलियत की, जिनमें कई हत्याएं और गैंगवॉर से जुड़ी वारदातें थीं। शोधकर्ताओं के अनुसार उसके कारण पैदा हुई हिंसा में करीब 3,500 लोग मारे गए—एक ऐसा आंकड़ा जो किसी भी फिल्म की कल्पना में भी भारी साबित हो।
फिल्म ‘धुरंधर’ में दिखाया गया रहमान इसी वास्तविकता की गूँज जैसा लगता है, हालांकि फिल्म उसे एक प्रतीकात्मक खलनायक बनाती है, जिसके भीतर बदले की आग और सत्ता से लड़ने की मानसकिता एक साथ जलती है। फिल्म इस चरित्र को मानवीय बनाकर भी दिखाती है, जिससे वह केवल अपराधी नहीं बल्कि व्यवस्था की विफलता का परिणाम प्रतीत होता है। यही वह बिंदु है जहां फिल्म और वास्तविकता एक-दूसरे को छूते हुए आगे बढ़ते हैं। असल रहमान भी वह बच्चा था जिसे बेहतर माहौल मिलता तो शायद कहानी कुछ और होती, लेकिन जिस माहौल में वह पला, वहां हिंसा ही जीवित रहने का तरीका थी। फिल्म इसी सामाजिक पृष्ठभूमि को रेखांकित करती है, हालांकि वास्तविक रहमान की क्रूरता पर्दे पर दिखाए गए रहमान से कहीं अधिक थी, इतनी अधिक कि फिल्म ने भी उसे सहजता से सीधे नहीं दोहराया।
विश्लेषकों का मानना है कि फिल्मों का उद्देश्य अपराध को सुंदर बनाना नहीं बल्कि उसके कारणों और प्रभावों को सामने लाना होना चाहिए। ‘धुरंधर’ यह संतुलन बनाने की कोशिश करती है, लेकिन वास्तविक रहमान डकैत की बर्बरता इतनी विशाल थी कि किसी भी फिल्मी फ्रेम में वह पूरी तरह समा नहीं सकती। पर्दे का रहमान खतरनाक दिखता है, लेकिन कराची का वास्तविक रहमान उससे कहीं अधिक भयावह था, इतना कि आज भी उसके नाम के साथ एक डर लगता है, मानो किसी मौन चेतावनी की तरह। फिल्म ने इस अतीत को फिर से याद दिलाया है, और इसी बहाने यह भी कि अपराध को केवल सनसनी की नजर से नहीं बल्कि उसकी जड़ों को समझने की जिम्मेदारी के साथ देखना चाहिए।
स्रोत : यह लेख बीबीसी हिंदी में प्रकाशित लंदन के पत्रकार जाफर रिज़वी के लेख पर आधारित है।
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